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________________ घर-आँगनमें गुरुदेव पधारे तब तथा व्याख्यान के प्रारंभमें, इस प्रकार अनेक प्रसंगों पर स्वस्तिक करनेके हेतु गहुँली करनेकी एक आवश्यक कर्तव्य जैसी प्रथा है। इसलिए जैनोंमे यह चिल्न अति प्रचलित है। अजैनोंमें भी त्यौहारोंके दिन घरके आँगनमें, रंगोलीमें अथवा लग्न आदिके प्रसंग पर स्वस्तिक बनानेकी प्रथा सर्व विदित है। (विशेष परिचय के लिये देखिए पट्टी परिचय सं. ३) ___ कतिपय अजैनोंमें उलटे प्रकारसे स्वस्तिक बनानेकी प्रथा अधिक है। ६२. कलश - मंगलकलश । कल्पसूत्रकी पद्धतिका। इस कलशसे सम्बन्धित परिचय प्रतीक क्र.२ में दिया गया है। विशेष यह कि इस कलशमें दो आँखे' तथा कुछमें दुपट्टे जैसे वस्त्र के दो हिस्से बनाये जाते है, जिन्हें यहाँ दिखाया गया है। ये दोनों किस लिये है? इसके प्रमाणभूत निर्देश ग्रंथोंमें निर्दिष्ट हो ऐसा कहीं देखनेमें नहीं आया है। यद्यपि इनके लिए कुछ अनुमान अथवा कल्पना की जाती है किन्तु उनकी चर्चा यहाँ अप्रस्तुत है। ६३. एकआकृति- कल्पसूत्रमें तथा पृष्ठ पट्टिकाओंमें सुशोभन के रूपमें प्राप्त भूमिति के प्रकार की मध्ययुगीन आकृति की अनुकृति। ६४. कूर्मशिला - शिखरवाले मन्दिरकी नींव के केन्द्र स्थानमें (प्रतीक मे बताये अनुसार) समचतुरस्त्र पत्थर पर नौ खाने बनाकर, विविध प्रकारकी आकृतियोंसे उत्कीर्ण यह शिला स्थापित की जाती है। शिल्पशास्त्रमें इसका बड़ा महत्त्व है। शुभ मुहूर्तमें, उत्तम व्यक्ति के हाथोंसे यह समारोहपूर्वक स्थापित की जाती है, जिससे जिनमन्दिर की रचना निर्विघ्न रूपसे पूर्ण हो और वह दीर्घजीवी बने, ऐसी एक प्रचलित मान्यता है। नौ कोष्ठकोंमें क्या क्या है यह चित्रमें स्पष्ट रूपसे पहचाना जा सकता है। केन्द्रमें कछुआ होनेसे इसको कूर्मशिला नाम दिया गया है। इसमें अन्य आकृतियाँ अधिकांश रूपमें समुद्रोत्पन्न है। ६५. मकर - शिल्पशास्त्रमें इसे 'विराली' शब्दसे सम्बोधित किया है। यह आकृति परिकर-परिगृहमें, ऊपरवाले भगवानके दोनों पाश्चोंमें बनाई जाती है। (मगर - विराली) इस प्राणीका यथार्थ नाम क्या है? यह तथा इसे यहाँ रखनेका वास्तविक हेतु क्या है? यह यथार्थ ज्ञान नहीं हो पाया है। यह जलचर जीव आटलांटिक महासागर के मध्यभाग के एक प्रदेशमें विशाल संख्या में उपलब्ध है। दरियाई प्रवासियोंने सन् १९३८ में यह जीवको मुखमे से रात्रिको आग निकालते हुए देखा है। ६६. मकरमुख- यह एक जलचर प्राणी है। शिल्पग्रन्थोंमे इसे 'विराली' कहते है किन्तु प्राणीशास्त्रकी दृष्टिसे तो यह मत्स्यका ही प्रकार विशेष माना जाता है। वस्तुतः देखा जाए तो यह प्राणी कौनसा है, इसका स्पष्ट, यथार्थ उल्लेख ज्ञात नहीं हो सका है। किन्तु प्रत्येक मन्दिरमें गर्भगृहके द्वारकी देहली पर दो की संख्यामें ये बने होते है। इस पर पैर रखकर ही सभी अन्दर जाते है। देहलीमें ये प्रतीक रखनेमें कौनसे हेतु रहे होंगे, यह शिल्पग्रन्थोंसे स्पष्ट ज्ञात नहीं होता है। ‘उपमिति भव प्रपंचा' नामक कथाग्रन्यमें इन दोनों प्रतीकोंको राग तथा द्वेष के प्रतीकोंके रूपमें व्यक्त किया है। (इसका भावार्थ यह हो सकता है कि इन दोनोंका जल्दी या देरीसे क्षय करोगे तभी तुम परमात्मा के चरणोंमें पहुँच सकते हो। अथवा 'रागद्वेष रूपी शत्रुओंको रौद डालो' ऐसा भाव सुचित होता है। यद्यपि शिल्पशास्त्रियों को पूछने पर इस सम्बन्धमे वे भी कोई प्रमाणभूत या सन्तोषप्रद समाधान नहीं दे पाते है।) ६७. छत्रत्रयी - यह छत्रत्रयी विचरण करते हुए तीर्थकरदेवों के सहवर्ती अष्टमहाप्रातिहार्यों में से एक प्रातिहार्य है। हजारों देव, तीर्थकर देव सर्वगुण सम्पन्न होनेसे, राग-द्वेषसे मुक्त होनेसे तथा देव और मनुष्योंसे पूजाके योग्य होनेसे, उनकी परिचर्या-सेवा, भक्ति एवं सम्मान-स्वागत के लिये सदा साथ रहते है। उस समय वे देव ही अशोकवृक्ष आदि आठ प्रातिहार्यों की रचना करते है। उसमें भगवानके मस्तक पर तीन छत्र रूप प्रातिहार्य को रखते है। जैनोंके अनेक मंदिरोंमें तीर्थंकरोंकी प्रतिमाओं के मस्तक पर ऐसे चांदीके बनाये हुए तीन छत्ररूप प्रातिहार्य लटकाये हुए रहते है। प्राचीन परिकरोंवाले पाषाण अथवा धातुके अनेक शिल्पोंमें तो ये छत्र अन्दर ही उत्कीर्ण किए हुए होते है। इन छत्रोंका क्रम इस प्रकार होता है कि ऊपरसे नीचे की ओर आते है तब पहले छोटा, बादमें उससे बड़ा और उसके बाद उससे बडा छत्र रहता है। जब प्रभुके मस्तकके पाससे ऊपर की ओर जाते है तब प्रभके मस्तक पर पहले बडा, फिर उससे कुछ छोटा तथा अन्तमें उससे भी छोटा छत्र रहता है। इस कमसे तीनों छत्र बनाये जाते है। और यही क्रम सर्वथा सच्चा कम है। - इससे विपरीत प्रथा अजैन मंदिरोमें विशेष देखने में आती है, उसमें मूर्तिके सिर पर छोटा, उसके बाद कुछ बड़ा और उसके ऊपर उससे भी बडा, किन्तु उनके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। ६८. चामर - देवका और राजाके दरबारमे अथवा चल-समारोह अथवा रथयात्राके अवसर पर भक्ति-बहुमान की दृष्टिसे राजा अथवा देवमूर्तियों के आसपास ●वर डुलाये जानेवाले चामरोंका यह प्रतीक है। अष्टमहाप्रातिहार्योमे से यह एक प्रतिहार्य है। विचरण करते हुए तीर्थकरोंको विहारमें, तथा देशना के समय देवगण दोनों ओर आसपास खड़े रहकर चैंवर डुलाते है। हिमालय के प्रदेश में होनेवाली चमरी गायकी पूँछके बालोसे ये चैंबर बनाये जाते है। धार्मिक अनुष्ठानोंमें इसको आचरणीय अर्थात् योग्य समझकर इसका समादर किया गया है। ६९. इन्द्रध्वज- इन्द्र के अतिरिक्त ध्वजके ओर भी नामांतर है। यह ध्वज तीर्थंकरोंके अथवा किसी भी व्यक्ति के दीक्षा आदि कल्याणकों के चलसमारोह में अवश्य होता है। तीर्थंकरोंके प्रसंग में देवगण यह ध्वज दैवीशक्तिसे बनाकर चलाते है। यह असाधारण ऊँचा, चौडा तथा विशालकाय होनेसे अतिभव्य तथा हजारों ध्वजाओंसे जैनशासन की विजय-पताका लहराता रहता है। समवसरण (तीर्थकर देवोंके प्रवचन-पीठ) की चारों दिशाओंमें दिगन्तव्यापी ध्वज लहराते रहते है। ध्वजका महत्त्व एवं उसका आदर राष्ट्रोमें तथा धर्मोंमे असाधारण होता है। आजकल जैनोंके चलसमारोह में सबसे आगे प्रायः इन्दध्वज की गाडी अवश्य होती है। यहाँ तो केवल इन्द्रध्वजका आभास मात्र करानेके लिए सामान्य-बाल प्रतीक दिखाया गया है। ७०. ठवणी - षट्कोण बाजोठ (पटिये) पर 'ठवणी' के नाम से परिचित घोडी। इस ठवणी पर धर्मग्रन्थ रखा गया है। इस ठवणी पर अक्षके स्थापनाजी पुस्तकसहित भी रखे जाते है। (विशेष परिचय के लिए देखिए प्रतीक सं. ७१) ५. आँख्ने रखने की प्रथा अजैन ग्रन्थवर्ती कलशमे भी देखनेमें आती है। १०. कतिपय सुप्रसिद्ध आचार्यादि पदस्थ मुनिवरों और गृहस्थोंने इनका वास्तविक क्रम लक्ष्य में न रखनेसे छत्र यथार्थ क्रमके अनुसार लटकाये होनेपर भी व्यर्थ मान्यताके कारण टूस्टियोसे कहकर व्यवस्थित क्रमसे लगाये हुए छत्रोको भी पलटाकर गलत क्रमसे लटकाने का सूचन करते हैं किन्तु ऐसा करना कथमपि उचित नहीं है। किसी किसी साधु के द्वारा प्रकाशित चित्रोंमें भी उलटा कम प्राप्त हुआ है। मेरे पास तीन छत्रोंवाली प्राचीन मूर्तियोंके अनेक चित्र है। उनके आधारपर निश्चित रूपसे कह सकता हूँ कि यहाँ प्रतीक में बताया हुआ कम ही यथार्थ है। और सबको इसी क्रमसे ही छत्र लटकाने चाहिए। कुछ बड़े परिकरोंमे तो अंदर ही पत्थरसे गढे हुए तीन छत्र स्पष्ट रूपसे बताये गये है। तथा छोटे परिकरोंमे जहाँ तीन छत्र नहीं बताये जा सकते वहाँ स्पष्ट रूपसे एक ही छत्र बताया हुआ होता है। फिर भी उसी छत्र पर अन्य दो पत्रों को सूचित करनेवाली दो रेखाएँ अवश्य उत्कीर्ण होती है। १७६ducation International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004065
Book TitleTirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherJain Sanskruti Kalakendra
Publication Year2007
Total Pages301
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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