SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पट्टी क्र. ५५ में एकेन्द्रिय जीवों के तमाम प्रकारोका दिग्दर्शन किया गया है। इस पट्टीमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँचों भेदों को बताया गया है। इन तमाम जीवों को पापोदय से सिर्फ एक शरीर (body) मिला होता है। शेष जीभ, आँख, नाक, कान, ये चार इन्द्रियों नहीं होती है। पृथ्वीसे धरती, पहाड, पानीसे समुद्र, नदियों, घरती तथा आकाशवर्ती तमाम प्रकारका पानी, अग्निसे आकाशी बिजली से लेकर धरती पर रही अग्निके तमाम प्रकार, वायुसे किसी भी तरहकी बहती हवा और वनस्पतिसे तमाम प्रकारकी वनस्पतियों, वृक्ष आदि का समझ लेना। समग्र विश्व के मनुष्य, प्राणी, क्षुद्र जंतुओं का जीवन, वनस्पति तथा उसकी विविध प्रकारकी बनावटों द्वारा पुषित होता है। जीव बसेरे के लिए परती (पृथ्वी), जीवन जीने के लिए पानी, अग्नि, वायु तथा शरीर आदि के पोषण के लिए मुख्यतः वनस्पतिका उपयोग करते हैं। ये तमाम एकेन्द्रिय पदार्थ जब तक संलग्न होते है तब तक सजीव होते है। मूल से जब अलग किये जाते है तब धीरे धीरे निर्जीव हो जाते है। इन एकेन्द्रिय जीवों पर विश्व के जीवों का बहुतेरा जीवन टीका हुआ है। जैन साधु मनसा, वाचा, कर्मणा किसी जीव की हिंसा न हो इस लिए आजीवन प्रतिज्ञाबद्ध होनेसे ऐसे सजीव एकेन्द्रिय प्रकारोंका उपयोग नहीं करते। उसका स्पर्श भी नहीं करते क्योंकि स्पर्शसे पाप होता है। स्पर्शसे भी उन जीवोंको सूक्ष्म दुःख होता है। पट्टी के नीचे दिये गये विवरण में प्रकारोंको अलग अलग समझाने के लिए डिझाइन द्वारा संकेत किया है। ५६. दो इन्द्रियसे लेकर पंचेनिय तकके जीवोंका दिग्दर्शन यह पट्टी दो इन्द्रियों, तीन इन्द्रियों, चार इन्द्रियों तथा पाँच इन्द्रियोंवाले जीवोंकी है। दो इन्द्रियों, तीन इन्द्रियों तथा चार इन्द्रियोंवाले जीवों का संकलित नाम विकलेन्द्रिय है। प्रारम्भ के तीन खानों में ये तीनों प्रकार बताये हैं। फिर तिर्यच पंचेन्द्रिय के तीन बर्तुल दिये है। इनमें जलचर, स्थलचर तथा खेचर इस तरह तीन प्रकार के जीव होते है। तत्पश्चात् बाकी पंचेन्द्रिय जीवोंमें देव, मनुष्य तथा नरक ये तीन प्रकार है। देव आकाश और पाताल दोनों स्थलों में रहते है, नरक के जीव पातालमें ही रहते है और मनुष्य पृथ्वी पर रहते हैं। इस तरह दो पट्टियों द्वारा जैन धर्म में बताये गये समग्र जीव विज्ञानका सामान्य ख्याल प्रस्तुत किया है। अंग्रेजी परिशिष्टोंमें दी गई २२ पट्टियों की भूमिका इस पुस्तकमें विविध प्रकार तथा विविध विषयकी बोर्डर दी गई है। ये बोडरे संलग्न रूपमें ठेठ तक चालू रहे तो ठीक हो परंतु पन्नोंकी मर्यादा के कारण पारणा संभवित नहीं होती। गुजराती परिशिष्टोंमें सिर्फ ८ बोर्डर बन पाई। तत्पश्चात् प्रस्तुत हिन्दी परिशिष्टोंमें पर्याप्त जगह न होने के कारण बोडर रखना शक्य नहीं था। दूसरी मुसीबत यह भी रही कि इस ग्रन्थसे उपयुक्त तथा शोभनीय ऐसे विषय खास तौर पर शेष न रहनेसे नई पट्टियाँ बनाकर रखना शक्य न हुआ। परंतु अंग्रेजी के लिए शुरूसे ही कुछ सतर्क होने के कारण दूसरी आवृत्ति में जो २० पट्टियाँ रखी थी उन्हीं पट्टियों को तीसरी आवृत्ति में उसी रूपमें रखी है। परंतु २० में से १७ पट्टियाँ साथ ही ली है तथा पहले की १८ से २० पट्टियों के स्थान पर कल्पसूत्र स्टाईलकी नई ३ पट्टियों के साथ पहले की शेष ३ पट्टियों को जोड़ दिया है। ५७ से ७३. श्वेतांबर-दिनंबर मतानुसार १६ विद्यादेवियाँ तथा २४ यक्ष-यक्षिणी आदिकी पट्टियाँ अरबों वर्षों के महाकाल दरमियान जैनधर्म में २४ ईश्वरीय व्यक्तियों ने जन्म लिया जो तीर्थकर कहे जाते है। हर एक तीर्थकर के केवलज्ञान होने पर तीर्थकरोंकी आम प्रवचन सभा में अपने धर्मशासन का योगक्षेम और कल्याण हो इसलिए पातालवासी देवों में से एक पुरुष देव तथा एक स्त्री देव रक्षक के रूपमे नियुक्त किये जाते है। इन्हें यक्ष-यक्षिणी कहते है। ५७ से ५९ तक की पट्टियों में श्वेताम्बर मत के अनुसार २४ यक्षों के चित्र तथा ६० से ६२ तक की पट्टियों में चक्रेश्वरी आदि २४ यक्षिणियों के चित्र दिये है। ६३ से ६५ तक की पट्टियों में दिगम्बर मान्यता के अनुसार २४ यक्षों के तथा ६६ से ६८ तक की तीन पट्टियोंमें २४ यक्षिणियों के चित्र है। ६९ वी पट्टीमें जैनधर्म में कतिपय अधिकांश जो देव है वे प्रस्तुत है। उसमें प्रथम छः आकृतियाँ श्वेताम्बर मत के अधिकांश देवोंकी है, फिर एक सीधी पट्टी चितराकर दो दिगम्बर मतके अधिकांश देव प्रस्तुत किये है। श्वेताम्बर मतके छः देवों के चित्र दिये है। उनमें क्रमशः प्रथम धरणेन्द्र है. जो पार्श्वनाथ भगवान के सेवक देव है। यद्यपि तीर्थकरों के अधिष्ठायक देव यक्ष ही होते है और यक्ष देवों के व्यन्तर निकाय के ही होते हैं इसी लिए नियमानुसार पार्श्वनाथ भगवानके अधिष्ठायक देव पार्श्वनाथका यक्ष ही है लेकिन कमठ के उपसर्गसे रक्षण करनेका भक्तिपूर्ण कार्य धरणेन्द्रने किया था अतः परणेन्द्रको भी अति महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यह परणेन्द्र तो दूसरे भवनपति निकायके है, अतः वह यक्ष नहीं है। पट्टीके दूसरे बमशांति यक्ष जो घरणेन्द्र की तरह भगवान महावीर के अधिक संख्यक भक्त सेवक है। तीसरे विमलेश्वर सिद्धचक्र भगवान के अधिष्ठायक देव है और वे वैमानिक निकाय के सौधर्म कल्पके है। चौथे तपागच्छके अधिष्ठायक के रूपमें प्रसिद्धि प्राप्त, प्रभावक यक्ष जातिके माणिभद्र यक्ष प्रस्तुत है। वीर जातिमे उनका समावेश किया जाता है। पाँचवे भैरवदेव है। इन भैरव के अनेक प्रकार है। छठे क्षेत्रपाल है, इनके भी अन्य प्रकार है। यहाँ संक्षेप में परिचय दिया गया है। तत्पश्चात् अनावृत्त और सर्वाह्न दो दिगम्बरीय देव दिये है। उनका परिचय नहीं दिया है। ग्रन्थका कद बढ़ जाने के भयसे यहाँ आयुध, वाहन आदिका परिचय नहीं दिया गया। श्वेताम्बर यक्ष-यक्षिणियोंकी पट्टियों के चित्रों में कहीं कहीं आयुध स्पष्ट न दिखते हों तो पट्टी क्र.४९ से ५४ में देख ले। श्वेताम्बर आम्नायकी ७०-७१ क्रमांक की दो पट्टियाँ और दिगम्बर आम्नायकी ७२-७३ पट्टियाँ ये चारों पट्टियाँ १६ विद्यादेवियोंकी है। इन देवियों के नामकी विद्याएँ है। प्राचीन कालमें इन विधाओंकी साधना होती थी। उनके देह-आसनादिकका परिचय नहीं दिया है। १६७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004065
Book TitleTirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherJain Sanskruti Kalakendra
Publication Year2007
Total Pages301
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy