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आवर्त अर्थात् विविध प्रकारोंसे उंगलियों पर सर्जित विविध आकृतियाँ।
यहाँ दी गई पट्टी में गिनने के लिए उपयोगी ऐसे सात आठ प्रकार के आवर्त दिये गये है। चित्रमें आधार रूप में अथवा जाप रूपमें शंखावर्त उपयोगी होनेसे तीसरा चित्र शंखावर्तका है। इन दोनों के सम्बन्ध के कारण शंख्यावर्त का जाप किया जाता है। दाहिने हाथका शंखावर्त १२ अंकका है। बारह अंकोंको एक बार गिननेसे एक बार १२ होते हैं। उस एक बारकी याद रखनेके लिए दो हाथों के पंजोंको पास पास रखकर दाहिने हाथके शंखाकार १२ पोरों पर जाप पूर्ण होने पर आधार अर्थात् एक बार हुआ इसके खयाल के लिए बायें हाथ के पंजे में दूसरी उंगली की बिचकी पोर पर अंगूठा रक्खा जाता है। फिर पुनः दाहिने हाथसे दूसरी बार १२ गिने जाने पर बायें हाथ की तीसरी उंगलीकी दूसरी पोर पर अंगूठा आधार स्वरूप रक्खा जाता है। इस तरह बायें हाथके नौ बार आधार हो जाते हैं, दाहिने हाथसे (नौ) ९ बार १२ (बारह) गिननेसे १०८ का जाप पूर्ण हो जाता है। आवर्क्स से जाप करना हो तो संख्या की गिनती के लिए सातके अंकके आकारवाली पोर पर अंगूठा रखना होगा और बारह बार किस तरह गिनना चाहिए इसके लिए तीसरा शंखावर्त का चित्र देखिये। उसमें एक कहाँ है इस पर ध्यान दें। अंगूठे से एक दो इस तरह शुरू करें। बारह पोरों पर उंगली के फिरनेसे प्रस्तुत आकृति का सर्जन होता है।
इस तरह दूसरा एक चित्र नंद्यावर्तके चारमें से एक भाग के आकारका है। इस नंद्यावर्तकी पूर्णाकृति जैनधर्म के सिवा कहीं पर नहीं देखी। इसी लिए वि. सं. १९९५ में पालिताना जैन साहित्य मंदिर जो मेरी अपनी संपूर्ण कल्पना तथा रूचि के अनुसार बननेवाला था उसके ज्ञानमंदिर हॉल की छत के केन्द्रमें अतिभव्य ऐसी ५-५ फूटवाली नंद्यावर्त की काष्ठ पट्टीवाली आकृति बनवाई है, और इस चित्रसंपुटके प्रथम टाइटलमें भी मेरी पसंद की इसी आकृति को आप देखेंगे क्योंकि इसका जोड़ जैनधर्म के अतिरिक्त विश्वमें कहीं पर नहीं है। अतः आम जनता की दृष्टि में इस आकृति का खयाल आवे इसे अति आवश्यक मानकर यहाँ प्रस्तुत किया है। यद्यपि स्वस्तिक (मंगल चिह्न) की आकृति तो सर्वत्र देखनेको मिलेगी लेकिन इसका जोड़ नहीं मिलेगा।
४०. जाप द्वारा मानसिक एकाग्रताको व्यवस्थित करनेकी अंकगणना पद्धति (अनानुपूर्वी)
आनुपूर्वी अर्थात् जिसमें क्रमानुसार क्रमशः व्यवस्था हो, और जिसमें क्रमानुसार व्यवस्था न हो लेकिन उलट-पुलट व्युत्क्रम व्यवस्था हो वह अनानुपूर्वी (अन्-आनुपूर्वी ) | जापका एक प्रकार सर्व सुलभ माला गिननेका, दूसरा आवर्त द्वारा करनेका, तीसरा किसी वस्तुकी गिनती द्वारा करनेका होता है, इस तरह लिखे या छपे अंकोंकी संख्या द्वारा भी जाप किये-गिने जाते हैं।
नवकार मंत्रके 'नमो अरिहंताणं' आदि पाँच पदोंका जाप करनेकी अनानुपूर्वी संपूर्ण जैन समाजमें सुप्रसिद्ध है। आज तक उसकी लाखों नकलें छप चूकी है। नवपदजी की अनानुपूर्वी कुछ कारणोंसे इतनी प्रचलित नहीं हुई।
पाँच पदों की अनानुपूर्वी २४ तीर्थंकरों के चित्रों के साथवाली होती है। यह पाँच खानेवाली होती है। इसमें गिनने के २० (बीस) पन्ने होते
माला गिनना उत्तम है या अनानुपूर्वी ?
प्रश्न उत्तर -
इसका उत्तर एकान्तमें नहीं दिया जा सकता। व्यक्तिके मनकी योग्यता पर इसका आधार है। फिर भी अपेक्षासे मालाके बजाय अनानुपूर्वीका जाप मनकी अकाग्रता निभाने के लिए अति सुंदर है। क्योंकि इसमें अंकोंको मनमें उलटे पुलटे बोलने होते हैं अतः आँख और मनका ध्यान बराबर अंकोंके खानों पर केन्द्रित करना ही पड़ता है अतः बाह्य विचारों के प्रवेश की संभावना बिलकुल कम रहे। अनानुपूर्वी जैन पुस्तक विक्रेता से मिल सकती है।
४१. एक-दूसरोंके प्रति किये गए भूलों अपराधोंके लिए क्षमा का दर्शन करानेवाली पट्टी
इस पट्टीका विषय गहन, गंभीर और महान् है। संसार और मोक्ष दोनों दो छोर पर आये हुए हैं। दोनों परस्पर विरोधी हैं। जन्म-मरण के फेरों का तथा संसारके मानसिक, वाचिक और कायिक इन त्रिविध ताप स्वरूप तमाम दुःखोंका अंत पाना हो तो मोक्षमार्गकी साधना करनी चाहिए जिससे किसी जन्म के अन्त में आत्मा मुक्तात्मा बन जाए। लेकिन इस साधना की मुख्य शर्त यह है कि सर्व प्रथम कषाय पर विजय पानी चाहिए। संसार का मूल कषाय है। कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ। इनमें क्रोध सबसे बुरा है। इन क्रोधादि कषायों के कारण एक दूसरे जीवोंके बिच विरोध, वैमनस्य, वैरभाव अनबन, बोलचाल, गुस्सा, पसंद-नापसंद, धिक्कार, तिरस्कार, कडुआहट इन सारी हीन-दुष्ट वृत्तियका आविर्भाव होता है और इसके कारण लगातार कर्म बंधन प्रगाढ होते जाते हैं।
ऐसी परिस्थितिमें करुणासागर जैन तीर्थंकरोंने देखा कि जीव क्रोधादि कषाय के दावानलमें जल रहे है। सालमें एकदा ही सब जीव एक दूसरे की भूलों, अपराधों, गुनाहों तथा अपने अनुचित बर्तावों की हृदय के सच्चे भावसे क्षमा माँग ले तो कषायकी आगका उपशम हो जाए इसलिए पर्युषण पर्व के संवच्छरी के शुभ दिन पर संवत्सरी प्रतिक्रमण के दरमियान सारे जीव सुविख्यात ऐसा 'मेरे दुष्कृतोकी माफी चाहता हूँ' अर्थवाला 'मिच्छामि दुक्कड़' यह सार्थक सूत्र बोलकर क्षमा चाहते हैं। वैर-विरोधकी आगको शांत करते हैं। इसे 'खमत खामणा' कहते हैं, क्षमना, क्षमाना, शांत होना और दूसरोंको शांत करना यही जैन धर्मका सार है। 'समता' ही जैन धर्मकी बुनियाद है, जैनधर्म की इमारत है, और श्रमण धर्मका - जैन धर्मका अगर कोई सार है तो 'उपशम होना, शांत होना' ही है। यह पट्टी यही संदेश देती है।
७१. इस व्युत्क्रमसे गिननेकी पद्धतिवाली दो आनुपूर्वियाँ प्रसिद्ध है। सबसे मूर्धन्य शास्त्रोक्त सर्वमान्य नवकार मंत्रके पाँच परमेष्ठी पदोंकी है अतः वह पांच अंकोंकी है और दूसरी नवपदजीके नव नाम- पाँच परमेष्ठी और दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तपकी है।
७२. मन को वश करनेके लिए यह जाप अंकुश का काम कर सकता है। छः महीने तक अखंड जाप गिनने पर सिद्ध हो जाता है और फिर तो जापक चिंतित कार्यों को पूर्ण कर सकता है। जैनधर्ममें यह एक छोटा लेकिन असाधारण असर करनेवाला साधन होने पर भी बहुत कम लोग इसका प्रयोग करते हैं। ८० प्रतिशत लोग तो इस अनानुपूर्वीको जानते या समझते भी नहीं है। चंचल चित्तवाले लोगोंके लिए यह एक रामबाण दवा है, इलाज है।
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