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________________ १६ नंबर की पट्टी इस पट्टीमे परिकर की मध्यवर्ती आकृतियों दिखाई है। केन्द्र में मूलनायक की मूर्ति दी है। उसकी दोनों ओर जिन मुद्रा (कायोत्सर्ग मुद्रा") में स्थित दो (खडी) मूर्तियाँ, बादमें उसकी दोनों ओर छोर पर दिखाए जानेवाले चामर तथा अमृत कुम्भधारी देव है। उनके पश्चात् क्रमशः दोनों ओर हाथी और मगरके मैत्री मिलन की आकृतियाँ, दोनों कायोत्सर्गियों पर दोनों ओर की देहरियों में रखी जानेवाली पद्मासनस्थ मूर्तियाँ आदि दिखाई है। और छोटी प्रतिमाओं की दोनों ओर मगर जैसा" जो जलचर प्राणी होता है, उसको यहाँ मुँहसे अग्नि की ज्वाला निकालता हुआ दिखाया है। प्राचीन कालमे विविध रूपसे परिकर बनते थे। इनमें अधिकांश बीचमे मूलनायकके रूपमे एक ही मूर्ति रहती थी। फिर तीन मूर्तिवाले परिकर भी बढ़ने लगे जिनमें मूलनायक के उपरांत दोनों बाजू पर काउसग्गीया अर्थात् खड़ी दो मूर्तियाँ रहती, उसके बाद पाँच मूर्तिवाले परिकर बहुत बढ़ने लगे, और अन्तिम सैकड़ों वर्षों से तो इसी की प्रधानता रही है। इसमें भी आजकल तो यह एक ही प्रकार मानो रूढ जैसा बन गया है। कुछ परिकर अष्ट प्रातिहार्यवाले भी होते है। एक मूर्तिवाले परिकर को 'एक तीर्थ', तीनमूर्तिवाले को 'त्रितीर्थ' और पाँच मूर्तिवालेको 'पंचतीर्थ' (अथवा तीर्थी), परिकर अथवा मूर्तिके रूपमें पहचाना जाता है। २४ तीर्थंकरोंमे 'कल्लाणकद' की स्तुतिमें कथित पाँच तीर्थंकरोंका प्राधान्य रहनेसे श्री आदिनाथजी, श्री शान्तिनाथजी, श्री नेमिनाथजी, श्री पार्श्वनाथजी तथा श्री महावीरस्वामीजी इन पाँचोंको स्थान दिया जाता है। इनमेसे किसी भी एकको मूलनायक के रूपमें स्थापित कर शेष चार को परिकर में स्थान दिया जाता है। १७ नंबर की पट्टी इसमें परिकर के सबसे नीचेवाले सिंहासन अथवा लोकभाषामें ‘गादी' शब्दसे प्रसिद्ध भाग बतलाया है। बीचमें शांतिदेवी अथवा आद्यशक्तिकी मूर्ति होती है। तदनन्तर दोनों ओर हाथी और सिंह रखे है। इन्हें रखनेका कारण स्पष्ट रूपसे ज्ञात नहीं हुआ है। परंतु सिंह श्रेष्ठ पराक्रमीके रूपमें तथा हाथी श्रेष्ठ बलवान के रूपमें प्रसिद्ध होनेके कारण 'शुभ कार्योंके लिए पराक्रमी और परोपकार के लिए बलवान बनना चाहिए' ऐसा अथवा इसके समान ही कोई शुभ-प्रेरक भाव दर्शक को ग्रहण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त परस्पर विरोधी प्राणी भी साथ रहकर प्रकट करते हुए अविरोधी अहिंसक भाव के आदर्शको भी जीवनमें उतारें इस हेतु से भी यह शिल्प रखनेकी प्रथा चली हो, तो यह भी अप्रस्तुत नहीं है। साथ ही भारतीय विद्वानोंने इन दोनों प्राणियोंकी 'मंगल' रूपमें गणना की है। इस कारण भी इन्हें रखनेकी परम्परा चली हो, यह भी सम्भव है। ये सभी अनुमान है. सत्य जो हो सो हो। इसके बाद बाये भागमे पहले तीर्थकर श्री आदीश्वर प्रभुके चार हाथोंवाले गोमेधयक्षको गज वाहन पर उसके आयुधोंके साथ और अपनी दाईं ओर आठ हाथोंवाली गरुडवाहना चक्रेश्वरी देवी को उसके आयुधोंके साथ दिखलाया है। चक्रेश्वरीके हाथ, आयुधों तथा वाहनोंके सम्बन्धमें शास्त्रमें कुछ विकल्प है। १८. स्वस्तिक - मंगलमय माने गए स्वस्तिक-साथिये की विविध प्रकारकी थोडीसी आकृतियाँ। इस पट्टीके मध्य भागमें 'नन्द्यावर्त' नामक बृहत् स्वस्तिक की आकृति बताई गई है। यह आकृति जैनोंमें ही प्रचलित है। इसकी तो बृहत्पूजा भी होती है। और उस कार्यकी निर्विघ्न समाप्ति के लिए तथा अन्य प्रभावके लिए प्रसिद्ध है। स्वस्तिक अष्टमंगलों से एक मंगल आकृति है। तथा यह भारतीय प्रजाका-आर्य संस्कृतिका मंगल प्रतीक है। धार्मिक अथवा सामाजिक प्रसंगोंमें कुंकुम अथवा अक्षत आदिसे इसकी रचना की जाती है। इससे कर्ताका मंगल होता है ऐसा शास्त्रीय उल्लेख है। यह मंगल अ-क्षत रहे इसलिए प्रमुख रूपसे अक्षत-चावल द्वारा बनानेकी प्रथा है। हजारों जैन अपने मंदिरोंमें भगवानके समक्ष प्रतिदिन अक्षतोंसे स्वस्तिक की रचना करते है। स्नात्र-पूजा अनुष्ठानों में अनेक बार अनेक स्वस्तिक बनाये जाते हैं। किसी किसी तपमें यह आलेखन बड़ी संख्या होता है। देवमूर्ति तथा गरुओंके प्रवेशोत्सव और व्याख्यानादि अनेक प्रसंगों पर की जानेवाली 'गहुँली' में यह स्वस्तिक (अथवा नन्द्यावर्त भी) बनाया जाता है। यहाँ पट्टीम अन्तिम मुदित स्वस्तिक मथुरा स्थित दो हजार वर्ष पुराने 'आयागपट' के स्वस्तिक की अनुकृति है। यहाँ दिये गये स्वस्तिक "सीधे है किन्तु जैन साधु कालधर्म (मृत्य) पाते है तब, मृतकको पहनाये जानेवाले वस्त्रादिकमें केसरसे उलटा स्वस्तिक बनानेका आचार है। अजैनोंमें उलटे स्वस्तिक बनानेकी प्रथा अधिक है। जर्मन राज्यका राजचिह्न सीधे या उलटे स्वस्तिक था। कलाकी दृष्टिसे ये विविध रूपोंमे बताये जाते है। १९. शिल्पाकृति- यह चित्रपट्टी पत्थरकी शिल्पाकृति के नमूने के रूपमें दी गई है। इसमें बीचमें सिंहवाहना यक्षिणी अम्बिका है। आसपासमे विविध मुद्दाओमें (अम्बिकाभक्ति) अंग-भंगवाली नृत्य करती हुई देवांगनाएँ बताई है। यह देवी बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ प्रभुकी अधिष्ठायिका है। इसका दूसरा नाम आपकृष्पाण्डिनी है। यह देवी जैन-अजैन वर्गमे सुप्रसिद्ध है। अजैन लोग ‘माताजी' के रूपमें जिस देवी को सम्बोधित करते है वह यही देवी है। ' नवरात्रिमें (प्रायः) इसीके गरबियाँ तथा उपासनाएँ होती है। इसके प्रसिद्ध मंदिर आबू और गिरनार पर्वत पर हैं। २०. शिल्प पट्टी- भारहूतके स्तूपमें उत्कीर्ण पाषाण शिल्पकी एक सुन्दर अनुकृति। इसमें तीन वर्तुलाकारों में क्रमशः जैन संघमें प्रसिद्ध मगधेश्वर श्रेणिक, सम्राट संप्रति और सम्राट् खारवेलकी काल्पनिक आकृतियाँ दी गई है। श्रेणिक भगवान महावीर के परम भक्त थे। आगामी युगमे वे महावीरस्वामीके समान ही तीर्थकर होनेवाले है। अवन्तिका सम्राट् संप्रति जैनधर्म का महान् धर्मप्रचारक था। उसने नइ शिल्पकी दृष्टिसे सर्वोत्तम कक्षाकी करोडों जैनमूर्तियाँ रचाई थी। वह वीर संवत २२० में हुआ था। तदनन्तर कलिंग (उड़ीसा) प्रदेशका महान् मेघवाहन राजा खारवेल इ. सन्. पूर्व द्वितीय शताब्दीमे ५१. इसका दूसरा प्रसिद्ध शब्द 'खगासन' है। ५२. इस प्राणीका यथार्थ नाम क्या है? यह तथा इसे यहाँ रखनेका वास्तविक हेतु क्या है? यह यथार्थ ज्ञात नहीं हो पाया है। यह जलचर जीव आटलांटिक महासागरके मध्य भागके एक प्रदेशमे विशाल संख्या में उपलब्ध है, दरियाई प्रवासियोंने सन् १९३८ में यह जीव को मुखमे से रात्रिको आग निकालते हुए देखा है। ५३. स्नात्रके लिए पातुकी जो पचतीर्थी' रखनेका प्रचलन है वह उपर्युक्त पौच तीर्थकरोवाली ऐसी मूर्तिका सूचक है। ५४. यद्यपि इसका वास्तविक हेतु मुझे ज्ञात नहीं हुआ है तथापि जो मिला है वह हृदयंगम नही है, इसलिए इसका उल्लेख यहाँ नहीं करता। ५५. प्राचीनकालकी कुछ शतियोंके परिकरो में परिकर के जो मूलनायक हो, उनके ही यक्ष-यक्षिणी रखने की प्रथा नहीं थी किन्तु निश्चित किये गये यक्ष-यक्षिणी ही रखे जाते थे। इनमें यक्षिणीके रूपमे प्राप अम्बिका की ही स्थापना होती थी, और यमके रूपमे भी एक ही प्रकारका बड़े उदरवाला, हस्तिवाहनवाला या स्थापित किया जाता था। यह यक्ष कौनसा था, यह ज्ञात नहीं होता था, किंतु विद्वान 'स्नातस्या' की चौथी स्तुतिमे उल्लिखित 'सर्वानुभूति की कल्पना करते हैं। देव-देवियाँ सामान्यतः चार अथवा उनसे अधिक सायोवाले होते है। किन्तु प्राचीनकालमें दो हाथोवाले देव-देवियाँ बनानेकी परम्परा भी दी। ५६ जर्मन लोग आर्य कहलाते है। उनके एक नेता हिटलरने (सीचे अथवा उलटे) स्वस्तिकको राजचिहन बनाया था। जर्मन राष्ट्रजजमे, सैनिकोंकी भुजाओं पर, यन्त्र, शस्त्र आदि पर यही चिह्न अंकित होता था। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International १५६
SR No.004065
Book TitleTirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherJain Sanskruti Kalakendra
Publication Year2007
Total Pages301
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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