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चित्र नं. ३८ में भगवान महावीर विहार कर रहे है। इनकी सुन्दर चाल चलनेकी त्वरित गति का आकर्षक भाव चित्रमें परिलक्षित हो रहा है। भगवान के शरीर की ऊँचाई, चौडाई आदि सब अति व्यवस्थित रूपसे चित्रित किये है। यह चित्र अति भव्य, रम्य तथा अत्यन्त भावोत्पादक है। ऊपर अष्ट प्रातिहायोंके आठ नंबर अंकित किये है। यों तो यह चित्र मेरे द्वारा तैयार की हुई ऋषभदेव भगवानकी चित्र श्रेणीका है, इसी कारण उनके स्कंध पर बालोंका एक गुच्छ दिखाई पड़ रहा है। परन्तु इस गुच्छ जितने भाग पर सफेद कागज चिपकाकर रंगका समायोजन कर लिया जाय तो किसी भी तीर्थंकर का चित्र तैयार हो सकता है।
चित्र - ३९ : ३९, ४१, ४२, ४३ और ४५ इन चित्रोंमें विचित्र घटनाएँ समवसरण में घटित हुई थीं, इसी कारण प्रत्येक चित्रमें समवसरणका ऊपरी हिस्सा दिखाया गया है। चित्र ३९ में इन्द्रभूति अलगसे ही मालूम हो जाय, इस कारण उनके बायें हाथमें पुस्तक दिखाई है। भगवान को यहाँ प्रवचन मुद्रामें बताये है।
चित्र- ४०: यह चित्र ऊपर दिये गये वर्णन के आधार पर स्पष्ट समझा जा सकता है। चित्र में ' कुछ झुककर खड़े हुए ११ ब्राह्मण विद्वानों को समोसरण में ही दीक्षा लेकर उन्होंने जैन साधु का वेश धारण किया और उसी समय 'गणघर' पद का उदय हुआ। वासक्षेप डालने की प्रथा स्वयं तीर्थंकर की चलायी हुई है-अतएव अति प्राचीन है। मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में तो यह प्रथा अद्यावधि सर्वत्र चल रही है। बास-क्षेप यह सुगन्धित चन्दन के काष्ठ का अनेक सुगन्धित द्रव्यों से मिश्रित मन्त्रित किया हुआ चूर्ण है और वह मंगल आशीर्वाद देने के लिये साधु-साध्वी एवं गृहस्थवर्ग के शिर पर डाला जाता है।
यह घटना समोसरण में घटित होने के कारण उसका थोड़ा हिस्सा चित्र में दिखाया गया है। भगवान अशोक वृक्ष के नीचे खड़े हैं, नीचे बैठे हुए हैं वे दीक्षा लेने के लिए बैठे हुए ब्राह्मण विद्यार्थी गण है। वैशाख शुक्ला एकादशी के दिन ही उन सभी ब्राह्मणों ने चारित्र स्वीकार किया, उसके बाद उन्हें 'त्रिपदी" देते हुए गणधर पद के योग्य हुये। शीघ्र ही भगवान ने अपने शासन की स्थापना करके साधु साध्वी श्रावक और श्राविकारूप चतुर्विध संघ की घोषणा की और चारों ही संघ के अधिनायकों की नियुक्ति की। उस दिन से 'वीर ( -महावीर ) शासन का प्रारम्भ हुआ। यह शासन २१ हजार वर्ष तक अविच्छिन्न रूप से चलता रहेगा। बाद में तुरंत उसका अन्त होगा और उसके बाद प्रलयकाल का प्रारम्भ होगा। चित्र - ४१: ज्योंही हमारी नजर इस लाक्षणिक, कमनीय चित्र पर टिकेगी त्योंही हम २५०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर के परिवेशमे प्रवेश कर जायेंगे। हमारे सामने परमात्मा महावीरका समवसरण दृश्य साक्षात् हो उठेगा। दिलमें संजोयी कल्पना इस चित्र द्वारा साकार बनी है।
समवसरणमें श्रोता वर्ग व्यवस्थित, सभ्यतापूर्वक, शिष्टता के साथ खड़े है। हमेशा पहले तीन घण्टेकी सतत देशना तीर्थंकर फरमाते है और बाद में दूसरी देशना उनके मुख्य शिष्य गणधर की होती है।
अपनी देशना पूरी होते ही तीर्थंकर सिंहासन से उठकर साधुओंके साथ समवसरण के दूसरे गढ के ईशान कोणमें देवों द्वारा निर्मित 'देवच्छंद " में पधार कर विश्राम करते हैं। इनके साथ सेवामें साधु रहते हैं।
चित्र - ४२: शास्त्रो में समवसरण के चार द्वारोंका सुन्दर वर्णन उपलब्ध होता है। इस द्वार की भव्यताका चित्रांकन आज तक किसीने न किया न करवाया। कई वर्षोंसे मेरी यह कामना थी कि एक चित्र ऐसा बनवाया जाय जिसमें सिर्फ एक द्वार (दरवाजा) का ही चित्रांकन किया जाय। ताकि उसकी भव्यता, आकर्षण प्रकाशमें आ सके। प्रस्तुत चित्र द्वारा मेरी इच्छा साकार बनी है और मेरी कल्पना को चित्रकारने अपनी कुशल कला द्वारा यथार्थताका ठीक परिधान पहनाया है। इस चित्र के द्वारकी भव्यता और इसकी गहराई हृदयको तृप्त कर दे ऐसी है। सिंहासन पर प्रभु विराजमान है। चतुर्विध संघ परम्परा, योग्यता व औचित्यानुसार बैठा किंवा खड़ा है। सिंहासन स्फटिक रत्नका होनेसे उसका कलर भी वैसा ही किया है। आकार, रंग, रेखाएँ और जवाहरातयुक्त शास्त्रोक्त विधान-वर्णन अनुसार चित्रित इस भव्य
१६. 'त्रिपदी' अर्थात् शिष्यों को अगाधज्ञान महाप्रकाश प्राप्त हो और प्राणी मात्र का कल्याण कर सके वैसे महान् शास्त्रों की रचना करने का सामर्थ्य मिले, इसके लिये विश्व के मूलभूत स्वरूप का दर्शन कराने वाले गम्भीरार्थक तीन सूत्र पदों को भगवान बोले और गणधर एक एक प्रदक्षिणा करके एक-एक को ग्रहण करें। उसमें भगवान प्रथम उपन्ने चा" कहते फिर "विगमेह वा" कहते और फिर "धुवेइ वा" कहते। ये तीन वाक्य उस द्वादशांग शास्त्र की रचना के और विश्वरचना व्यवस्था के बीजक है। इसका भावार्थ यह है कि द्रव्य पदार्थ अपेक्षा से उत्पन्न होता है, अपेक्षा के ही कारण वह नाश को प्राप्त करता है और अपेक्षा से ही वह मूल स्वरूप में ध्रुव - नित्य रहता है।
१७. कितनेक प्राचीन ग्रन्थोंमें अशोक वृक्ष के नीचे के भागमें देवच्छंद स्थान बताते है, परन्तु अशोक वृक्ष के नीचे किस प्रकार किस दिशामें होता है, इस संबंध में कोई स्पष्टता नही मिलती। छंद अर्थात् आसन ।
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दरवाजे को अपलक नेत्रोंसे निरन्तर निहारते रहने पर भी आँखे हटानेकी इच्छा नहीं होती, ऐसा यह भव्य चित्र है।
समवसरण में तीन गढ़ होते है। एक गढ़ में चार दरवाजे होने से कुल १२ द्वार होते है। चित्र - ४३: इस एक ही चित्रमें बलिविधानसे संबंधित तीन प्रसंगोंको चित्रित किया है। यदि इन तीनोंके पृथक्-पृथक् चित्र बनाये जाय तो वे इतने दर्शनीय आकर्षक और प्रवाह परिपूर्ण होंगे कि उसका अनुमान नहीं किया जा सकता। क्योंकि हमारी कार्य मर्यादा है अतः यह संभव नहीं हो सका।
बलि अर्थात् अर्थपक्व चावल- यह बलि विधान प्रथम प्रहरकी देशना के अंत में होता है। चक्रवर्ती से लेकर सामान्य प्रजा तक को भी बलि तैयार करनेका अधिकार है। बलिमें प्रयुक्त होनेवाले चावल अखण्ड, पतले, सुगंधयुक्त, छिलके रहित और जल द्वारा विशुद्ध किये हुए होते हैं। बाद में उन चावलों को पकाने के लिए चूल्हे पर चढाते है। अर्ध पक्वावस्था में नीचे उतार लेते है। बादमें देव उसमें दिव्य सुगंधी द्रव्य डालकर उसे सुगंधीदार बनाते है। बाद में संपूर्ण शणगार युक्त सधवा युवा स्त्री उस थाल को सिर पर रखती है। बाद में धूमधाम से वार्जित्र युक्त बडे उत्सव के साथ जय-जय का उद्घोष करते हुए पूर्व द्वार से समवसरणमें प्रविष्ट होकर ज्योंही वे प्रभु के पास पहुँचते है त्योंही भगवान क्षणभर के लिए विराम लेते है फिर बलि लानेवाले लोग भगवान को तीन प्रदक्षिणा देकर भगवान के पास खड़े रहते है। भगवान की अमृतमयी नजर बलि पर पड़ती है। इस दिव्य नजरसे चावलों में एक विशिष्ट शक्ति का संचार हो जाता है।
बाद में अधिकृत लोग भगवानके समक्ष खड़े रहकर थालमें से मुट्ठियाँ भरके चावल उछालते है। नीचे गिरनेसे पहले ही आधे चावलोंको तो देवलोकके देवता गण ग्रहण कर लेते है। शेष के आधे चावल बलि बनानेवाला लेता है। बाद में जो भाग्यशाली होता है वह गिरते हुए चावलोंकी अथवा समवसरण की धरती पर पडे हुए चावलोंको प्राप्त करता है। इसका फल
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क्या ?
इस बलिका सिर्फ एक चावल सिर पर रखा जाय तो रोगीके सारे रोग शान्त हो जाते है, वह स्वस्थ हो जाता है। और साथ ही छः मास तक उसे अन्य कोई रोग नहीं होता। ऐसा लगता है कि यह बलि विधान प्रत्येक तीर्थंकर के समय होता रहा होगा। यह प्रतिदिन भी होता होगा, पर इसका कोई उल्लेख अक्षरोंमें पढनेको नहीं मिलता।
विचारणीय प्रश्न
तीर्थंकर लोकोत्तर व्यक्ति होते है। वे कृतकृत्य भी होते है। जब कि बलि विधान तो लौकिक क्रिया है। रोग निवारणके लिए है। मात्र संसारी जीवोंके सुखके लिए है। यह क्रिया मोक्ष प्राप्तिकी नहीं है। इस क्रिया से अग्नि वायु काय आदि जीवोंकी हिंसा होती है। तो फिर इस विधानके लिए तीर्थंकर देव देशना बंद कर देते है और बलि की इस क्रिया को इतना महत्त्व देते हैं, उसके साक्षी बनते है, इतना सहकार प्रस्तुत करते है, इसका कारण क्या है? यह अति गंभीर विचारणीय प्रश्न है।
शासन के संवाहक आचार्य के लिए यह प्रसंग प्रेरणास्पद है। लोकोत्तर शब्दकी अर्थमर्यादा क्या है? यह भी विचारणीय प्रश्न है। यह प्रश्न भी समुपस्थित होता है कि तीर्थंकर देवोंके समक्ष इस क्रियाकी क्या आवश्यकता है?
यह प्रसंग अप्रसिद्ध होनेसे बहुतसे आचार्य, मुनिवरोंके ध्यानमें नहीं होगा। यह चित्र हर दर्शक के मनमें तरंगे जमा देगा। शास्त्रोंकी पंक्तियोंमें छिपे इस वर्णन पर प्रकाश फेंक कर इसे उभारा गया है।
यह बलि किनके कहनेसे तैयार होती है व तथा अन्य बातोंका उल्लेख उपलब्ध नहीं होता।
१८ तस्मिन्नागतमात्रे च विरमंति क्षणात् जिनाः। लो.प्र. ३० श्लोक ६२. १९. छेदसूत्र में चावल प्रभुके चरणोंमें रखा जाता है, ऐसा लिखा है।
२०. यह भी ध्यानमें लेना होगा कि चावलों को लपकनेका अधिकार जैन अजैन सबको होता है।
संसारी जीवोंके बाह्यहित के लिए विवेकपूर्वक उचित सहकार देना हो तो भी यह काम हमें नहीं करना होता है ऐसी एकांत समझ रखनेवाले त्यागी महानुभावोंको इस प्रसंग के पढने के पश्चात् अनेकान्ती बनना उचित होगा।
यह प्रसंग चतुर्विध श्रीसंघकी- शासनकी स्वस्थता, सुरक्षा, स्थिरता और सुदृढ़ता के लिए होनेसे कालानुसार प्रसंगोचित व्यवहार करना गीतार्थोंका फर्ज है। जरूरत पड़ने पर अपवादोंका सेवन भी अनिवार्य हो जाता है। सिर्फ एकान्तवादसे शासन कभी चल नहीं सकता यह इससे सूचित होता है।
प्राचीन महर्षियोंने अनेक अर्थों तथा रहस्योंसे भरपूर एक बात की कि, "जैनशासनमें किसी भी बाबतका सर्वथा निषेध नहीं, वैसे सर्वथा विधि भी नहीं" इस वचनमें बहुत कहा गया है। सुज्ञ इस बात को ध्यान में रखें।
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