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________________ समय देशना - हिन्दी ७२ गंध, वर्ण बोल दिया जाये, वहाँ पुद्गल समझते कि नहीं? स्पर्श-रस-गंध-वर्ण धर्म हैं, धर्मी नहीं है, और पुद्गल धर्मी प्रसिद्ध होता है। आप बड़े पुण्यात्मा हैं। क्यों? हमने कई ग्रन्थ पढ़े, तब समझा । तुम एकसाथ कई ग्रन्थ सुन रहे हो, बड़े पुण्यात्मा हो । एक निर्णय कर लीजिए, धर्मी को सिद्ध नहीं करना पड़ता, धर्मी को असिद्ध नहीं करना पड़ता, धर्मी तो प्रसिद्ध होता ही है। इसलिए ज्ञायकभाव मेरा प्रसिद्ध है। कैसा है ? नित्य प्रकाशमान है, इसलिए अब नहीं कहेंगे कि प्रगट हुआ है ज्ञायकभाव, अप्रगट हुआ है ज्ञायकभाव । वह तो त्रैकालिक विद्यमान है, इसलिए निर्मल ज्योति है । वह ज्ञायकभाव एक है । विशेषण क्यों लगाये ? इन विशेषणों के लगने से विशेष नहीं बना, वह तो विशेष था ही, इसलिए विशेषण लगे हैं। धर्मी तो प्रसिद्ध होता है। धर्मों से पहचान तो की जा सकती है, पर धर्मी तो होता है। यहाँ प्रकाश से प्रयोजन चेतन का ज्ञायकभाव ही है। इसलिए अमृतचन्द्र स्वामी की टीका नहीं पढ़ोगे, तो समयसार के हृदय को नहीं पढ़ पाओगे? आचार्य जयसेन स्वामी की टीका नहीं पढ़ोगे, तो हृदय किसमें है, यह नहीं जान पाओगे। दोनों योगियों का बहुमान रखो । क्या कह रहे हैं? संसार अवस्था में अनादि बंध पर्याय की प्ररूपणा से व्यवहार आ गया । ज्ञायक स्वभाव चिद्रूप त्रैकालिक है, लेकिन संसार में जीव अनादि से कर्मबन्ध की पर्याय के वश हुआ है। जैसे क्षीर में उदक/नीर है, वैसे ही आत्मा पुद्गल में है। फिर भी नीर, नीर है और क्षीर, क्षीर है। नीर में क्षीर हो जाये और क्षीर में नीर हो जाये, फिर भी नीर कभी क्षीर नहीं होगा। यह दृष्टान्त है। यह नीर-क्षीर दोनों पुद्गल हैं। पुद्गल में परस्पर में अत्यन्ताभाव नहीं होता, अन्योन्याभाव है। ये नीर, क्षीर तो एक हो जायेंगे। नीर को पीती है गाय, वही परिवर्तित होकर क्षीर हो जाता है । लेकिन कर्म और आत्मा कभी एक नहीं होंगे, इनमें अत्यन्ताभाव है। मैंने स्पष्ट इसलिए कर दिया कि कहीं नीर-क्षीर की तरह आत्मा पुद्गल को न समझ ले। नीर-क्षीर तो एक हो जाता है । अग्निकायिक व जलकायिक जीव की दोनों योनी स्वतंत्र है। एक होना असंभव है उदाहरण कार्य कारणभाव से जलकाय, अग्निकाय में कारण है। प्रत्यक्ष है। जल से विद्युत बना रहे हैं । चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त मणि से भी जल निकलता है। इनमें अन्योन्याभाव है । ऐसा समझना। ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥ gaa आचार्य-भगवान् ‘समयप्राभृत' ग्रन्थ में ज्ञायकभाव का कथन कर रहे हैं और अमृतचन्द्र स्वामी ने छठवीं गाथा की टीका में जो ज्ञायक स्वभाव का कथन किया है, वह अभूतपूर्व है। ध्यान दो, जो पुण्य-पाप प्रकृति है, वह कषाय का कारण है। कषायी जीव ही पुण्य-पाप करता है । कषाय के मन्द उदय में पुण्य होता है तथा कषाय के तीव्र उदय में पाप होता है। पुण्य-पाप की धारा कर्तृत्व दृष्टि से अकषायी सम्यग्दृष्टि जीव कभी नहीं करता है। कर्तृत्वदृष्टि से पुण्य-पाप की धारा कषायी जीव ही करता है। जब वह अकषायी होगा, तो स्वभाव में लीन होगा। वह परतत्त्वों से अपने आपको पृथक् अनुभव करेगा। इसलिए शुभाशुभ परिणाम हैं , वह बंध हैं। अशुभ परिणाम तो बंधभाव है ही। अशुभ परिणाम को बंधभाव कहनेवाले जगत में बहुत हैं, पर शुभभावों को बंध कहनेवाले विरले ही हैं। पर ध्यान दो, बंधभाव तो बंध ही है, अंतर इतना ही है कि अशुभभाव नरक/तिर्यञ्च में ले जाता है और शुभभाव देवगति/मनुष्यगति में ले जाता है। लेकिन दोनों भाव सिद्ध नहीं बनातें हैं। जब भी सिद्ध बनेगा तो शुभाशुभ भाव से शून्य होगा। इसलिए ज्ञायकभाव स्वभाव से अपरिणामी है, यद्यपि जगत में ऐसा कोई भाव नहीं जो परिणामी न हो । प्रत्येक द्रव्य में, प्रत्येक भाव में, षट्गुण हानि-वृद्धिरूप परिणमन चल रहा है। प्रत्येक अवस्था में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यदशा है। यदि परिणामी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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