SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय देशना - हिन्दी ३० तो आप कहोगे कि वैसे हमें यहाँ कोई जानते नहीं हैं और महाराज हमें पूछते नहीं हैं। लेकिन जिनवाणी क्या कहेगी ? हे मुनिराज ! तुम साढ़े ग्यारह बजे चर्या करके आये थे, आपने वहाँ पर ईर्यापथ प्रतिक्रमण किया था और तत्क्षण प्रत्याख्यान कर लिया है। नौ कोटी (प्रकार) से तुमने भोजन का त्याग किया है। अब तुम पर के भोजन में भोजन का आस्रव क्यों कर रहे हो? श्रावक को खुद सोचना चाहिए कि मुनिराज तो त्यागी है, उनके मुख से हम भोजन की व्यवस्था क्यों बनवायें ? भूख लगे, तो साथ लेकर आओ। दिन में कितने ही लोग आयेंगे तो दिन भर महाराज का पूछने में ही निकल गया। कोई सतना से भक्त आया, नमोस्तु किया, तो हमने दे दिया आशीर्वाद। हमारा काम हो गया। अगर मैंने कह दिया कि आओ बैठो तो मैंने एक समिति में दोष लगा लिया । आदान निक्षेपण समिति मेरी थी। मैं जब भी बैठता हूँ तो इस पिच्छी से मार्जन करके बैठता हूँ,परन्तु क्या ये मार्जन करके बैठेंगे? हमने इनके बैठाने में अनुमोदना कर दी तो मेरी एक समिति में दोष लग गया। पर आप ज्ञानी क्या कहोगे घर जाकर? महाराज के पास नहीं जाना, वे बैठने की भी तो बोलते नहीं हैं, कोई वात्सल्य नहीं है महाराज का। हे ज्ञानी ! आपने मात्र बाहर का वात्सल्य देखा । अरे ! तुम ये क्यों नहीं कहते हो कि उनका करने योग्य वात्सल्य उन्होंने कर लिया था। तुमने नमोस्तु किया, तो मैंने आशीर्वाद दे दिया था। ये महाराज का वात्सल्य हो गया। अब आगे समाज का वात्सल्य था कि बाहर से आये अतिथि का ध्यान रखे । अब बताओ कि कितना कठिन व्यवहार है। निश्चय की बात शुरू करूँ तो आप अभी घबड़ाने लगोगे । ठीक है, आप जितना शक्य हो उतना पालन करो, पर जरूर कहो कि सत्य क्या है। तुम नहीं कर पाओ, इसका मुझे खेद नहीं है। खेद तब आता है, जब तुम करते भी नहीं हो, और वैसा प्रतिपादन भी नहीं करते हो। तब खेद होता है कि असत्य ही सत्य के मुँह पर खड़ा रहता है। कथन तो जिनवाणी का वही करना चाहिए जैसा है वैसा। अन्यूनमनतिरिक्तं, याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञान- मागमिनः।।४२ र.क.श्रा.|| यह सम्यक् ज्ञान है। इसमें यह मत देखना कि हम कह देंगे तो इतने सारे लोग नाराज हो जायेंगे। नहीं, वे नाराज नहीं होंगे। वे इसमें अपना हित समझेंगे । एक क्षण को बुरा जरूर लगता है, लेकिन द्वितीय क्षण में आनंद देता है। अपन अपनी भूल को समझ गये। लोग कहते हैं कि जैनसाधु में व्यावहारिकता नाम की वस्तु नहीं होती है, बड़े शुष्क होते हैं। बिल्कुल सही है । ये इस व्यावहारिकता से बहुत ऊँचे चले गये हैं । उनको वहाँ देखो। नीचे-नीचे क्यों देखते हो? वे दर्शन, ज्ञान, चारित्र की व्यावहारिकता में लीन हैं, और तुम विषयों की व्यावहारिकता की बात करोगे, तो कैसे काम बनेगा? अब हम जब समयसार के मुनि की बात करते हैं, तो पिच्छि उठाना भी परसमय है । पिच्छि उठाई तो परसमय, रखी तो परसमय । इन दोनों से अभिन्न निज में लीन हो गये तो स्वसमय । जितना प्रवृत्तिरूप धर्म है, निश्चय से सब परसमय है, क्योंकि - जीवो चरित्त दंसण णाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण । पुग्गल कम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं ॥शासमयसा।। दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थिर होना स्वसमय है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र से भिन्न जो भी है, सब परसमय है। तुम्हें कठिन लग रहा है। अरे ! कठिन जो है, उसे तू सरल बनाये है और जो सरल है, उसे तूने कठिन बना डाला है। ये करना-करना कितना कठिन है, लेकिन स्व में स्थिर होना कितना सरल है। पर, जहाँ कुछ नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy