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________________ २७ समय देशना - हिन्दी ज्ञान है। वे क्या कर रहे हैं ? मैं दर्शनस्वभावी हूँ, मैं ज्ञानस्वभावी हूँ, मैं चारित्रस्वभावी हूँ । हे ज्ञानी ! ऐसा चिन्तन करने से चिंतनधारा तो बनती है, लेकिन स्वसमय में स्थित नहीं होते हैं । यह तो शुभोपयोग की चिंतनधारा है । मैं दर्शन - ज्ञान - चारित्र स्वभाव से भिन्न हूँ, ऐसा जो कथन कर रहा है, यह तत्त्वज्ञान का ज्ञान तो सत्य है, लेकिन तत्त्वज्ञान की लीनता नहीं है । जब तू स्वसमय में लीन होगा, उस काल में दर्शन -ज्ञानचारित्र इन तीन के विकल्प से भी भिन्न होगा । पर इतना भी ध्यान में रखकर चलना कि जब तक दर्शन - ज्ञान स्वभाव का चिन्तन नहीं करेगा, तब तक स्वसमय में जाने का मार्ग भी नहीं खुलेगा । भूल यह भी है कि व्यवहार पक्ष में जीनेवाला जीव तत्त्व के बारे में सोचना भी पसंद नहीं करता । अरे ज्ञानी ! जब तक तत्त्व का चिन्तन नहीं लायेगा चित्त में, तब तक तत्त्व की प्राप्ति का उपाय कैसे करेगा ? पुनः ध्यान दो, सम्यक् लीनता, ज्ञानानुभूति, चारित्र के प्रति दृष्टि । मैं मिथ्यात्व रहित हूँ, मिथ्या प्रकृति रूप अशुद्धि मेरे में नहीं है, मिथ्यात्व सम्बन्धी आस्रव भाव मेरे में नहीं है, मिथ्यात्व सम्बन्धी बंधारा मेरी आत्मा में नहीं है, मिथ्यात्व सम्बन्धी अचारित्र भाव मेरी आत्मा में नहीं हैं, मैं मिथ्यात्व - शून्य हूँ । क्या करोगे? सामायिक में मैं पच्चीस दोषों के आस्रव से रहित हूँ, मैं पच्चीस दोषों के संवर से युक्त हूँ। सम्यक् सम्बन्धी, सम्यक्त्वाचरण से युक्त हूँ, मैं मिथ्या ज्ञान संबंधी अध्यवसाय भाव से रहित हूँ। मैं मिथ्या ज्ञान संबंधी असंयम भाव से रहित हूँ। मैं मिथ्या संबंधी कुभाव से रहित हूँ । हे सम्यग्दृष्टि ! जब तुझे इस बात का भान नहीं हो रहा है, तो तुझे व्यवहार सम्यकत्व की अनुभूति नहीं हो रही है। इतना समय आपको देना पड़ेगा बुद्धिपूर्वक, इससे काम नहीं चलेगा कि मैं सुबह-शाम मंदिर में सिर टेककर आ गया। सुबह-शाम मंदिर में सिर टेककर आने के साथ, उस मंदिर में जो आप विराजे थे, वहाँ से लेकर क्या आये ? अनुभव का विषय कुछ बनाया कि नहीं बनाया ? क्रिया की अनुभूति में जीवन निकल गया, लेकिन क्रिया करने वाले की अनुभूति को प्राप्त ही नहीं हुआ । मिथ्यात्व - दर्शन-ज्ञान से रहित, आस्रव भाव से मैं रहित हूँ । आस्रव निजभाव नहीं, आस्रव तो परभाव है। तत्संबंधी परभाव से मैं शून्य हूँ, इसलिए मैं तत्संबंधी निजभाव से युक्त हूँ। मैं स्वसमय में हूँ। मिथ्यात्व परसमय है, सम्यक्त्व स्वसमय है। अचारित्र से शून्य हूँ, चारित्र से युक्त हूँ । हे जीव ! ये स्वसमय वाला जीव कहीं अन्यत्र से नहीं आता । परसमय में विराजा जीव ही स्वसमय को प्राप्त होता है । परसमय भाव की पर्याय को बदलना तेरी परिणति का कर्त्तव्य है । चिंतन से चित्त में परिणमन होता है, और चित्त के परिणमन से चारित्र की ओर झुकाव होता है। जो-जो बदले हैं, वे सब चिंतन की धारा से ही बदले हैं । आप विश्वास रखना, गृहस्थ भी बने थे, तो आपको निर्णय करना पड़ा था, कि गृहस्थी कैसे संभाल पाऊँगा । पर कोरा चिंतन स्वसमय नहीं है । स्वसमय की प्राप्ति का लक्ष्य स्वसमय होता है । चिंतन तो मिथ्यात्व के मंद उदय में भी बनता है। जब मिथ्यात्व के मंद उदय में ऐसा चिंतन करता है, तब सम्यकत्व के सन्मुख होता है । पर वह चिन्तन भी विफल नहीं गया, उस चिंतन ने भी तुझे सम्यकत्व के पास खड़ा किया है। जीवन की धारा वैसी ही बढ़ती है, विश्वास रखना, जैसी चिन्तन की धारा होती है। जब स्व में लीन होगा, तब चिन्तन में नहीं जायेगा, चैतन्य में जायेगा। परन्तु चैतन्य की प्राप्ति के लिए चिन्तन में अवश्य जायेगा। आप अनुभव तो करो, चिंतन का ही अनुभव करो, दोनों चिन्तन तो करो। पर एक बात बता दूँ, जो इक्कीस वर्ष का एक नवयुवक ज्ञान की धारा में चिन्तन कर रहा था, उसे विषयकषाय की कोई अनुभूति नहीं आ रही है । इन्द्रियाँ वही थीं उसके पास । न इन्द्रियविषयों का लोप हुआ, न इन्द्रियों का विनाश हुआ; पर जैसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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