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समय देशना - हिन्दी
३१६ कहना कि अखण्ड ज्ञान है। एक क्षण को जीव स्वानुभव में स्थिर रहता है, यह प्रत्यक्ष अखण्ड श्रुतज्ञान है। जो नहीं समझता समयसार को, वह कहता है कि ज्ञान में कौन-सा खण्ड हो गया, यहाँ खण्ड का मतलब है, परज्ञेय का आ जाना। ॥ भगवान महावीर स्वामी की जय ।।
qaa आचार्य भगवान् कुन्दकुन्द स्वामी आत्मा को पाँच धर्मों से शून्य कह रहे हैं। इन पाँच से रहित जो आत्मा को देखता है, वही सम्पूर्ण नयों सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञाता है, सम्पूर्ण जिनशासन को जानता है।
आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने कितने सुन्दर शब्द का प्रयोग किया? अखण्ड ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण, खण्डित ज्ञान खण्डित होता है । खण्डित होता है, तो ज्ञान कैसे खण्डित होता है ? ऐसा प्रश्न करो। अहो ज्ञानी ! जब-जब अध्यात्म का प्रयोग करेंगे, तब-तब परमज्ञायक भाव अखण्ड ध्रुव चैतन्य भगवती आत्मा टंकोत्कीर्ण परमपारणामिक स्वभाव से युक्त है। अखण्ड से कोई केवलज्ञान को समझता हो, ऐसा नहीं है। वह ध्रुव अखण्ड कैवल्य तो है ही, मति श्रुत ज्ञान भी अखण्ड होता है। ज्ञान में पर ज्ञेयों का आना खण्डपना है। निज ध्रुव ज्ञान में निज ही ज्ञेय होकर चलना, यह अखण्ड ज्ञान है। यानी ज्ञान में स्वरूप का चिन्तन करना भी खण्डधारा है। ज्ञान में स्वरूप के चिन्तन का भी चिन्तन, समाप्त हो जाये, ज्ञान से, ज्ञान मात्र को ही ज्ञेय बनाया जाये, यही अखण्ड ज्ञान है । निज में निज ज्ञान को ज्ञेयरूप से अनुभव करे, वही अखण्ड ध्रुव ज्ञान है। जहाँ निज ज्ञान में पर ज्ञेय आ गये हैं, ज्ञानी ! वहीं खण्ड हो गया। निज आत्मा स्वज्ञेयी है, पर शेयी नहीं है। वही ज्ञेय है, वही ज्ञाता है, वही ज्ञान है, तीनों की अभेददशा की जो अनुभूति है, वही शुद्धात्मानुभूति है । यही निश्चय मोक्षमार्ग है । मोक्षमार्ग अकेला नहीं कहना, उसमें निश्चय शब्द जोड़ना । यही वीतराग स्वसंवेदन है। यही स्वात्मानुभूति है । यही आत्मानुप्रतीति है । यही निश्चयज्ञान है, यही निश्चयदर्शन है। यही निश्चय चारित्र है यही परम माध्यस्थ भाव है।
मति-श्रुत ज्ञान परोक्ष नहीं है, ऐसा सर्वथा मत कहो, सिद्धान्त उसे परोक्ष ही कहेगा । क्योंकि सिद्धान्तवेत्ताओं के बीच में ऐसा बोल दोगे, कि मति-श्रुत ज्ञान प्रत्यक्ष ही हैं, तो आपकी कोई सुनने को तैयार नहीं होगा। पहले आप उसकी बात कहिए, यह मतिज्ञान 'आद्येपरोक्षम' यह सिद्धान्त श्रुत बोल रहा है। मति-श्रुत ज्ञान परोक्ष है। जब इन्द्रिय मन की सहायता का विषय बनाते है, तो परोक्ष होता है। लेकिन आत्मा जो है, वह ज्ञान स्वभावी है, जो ज्ञान है, आत्मा से भिन्न नहीं है, और जो आत्मा है, वह ज्ञान से भिन्न नहीं है। इसलिए शुद्ध श्रुतज्ञान भी आत्मज्ञान ही है।
श्रुतज्ञानस्य स्वयमात्मत्वात्ततो ज्ञानानुभूतिरेवात्मानुभूतिः ॥ आत्मख्याति टीका ॥
शुद्ध जो श्रुत ज्ञान है, वह स्वयं की आत्मा से युक्त है । ज्ञानानुभूति आत्मानुभूति है । इसलिए मतिश्रुत ज्ञान आत्मा के बाहर नहीं है। इसलिए वह भी आत्मा से अनुभूत होता है । बाहर से नहीं होता है साक्षात् आत्मा से होता है। इसलिए वह ज्ञान भी अध्यात्म की अपेक्षा से प्रत्यक्ष है। हे ज्ञानी ! यथार्थ मानना जो कह रहा है, वह न पंचाध्यायी ने न किसी विद्वान् ने कहा । यह आचार्य अमृतचन्द स्वामी स्वयं कह रहे हैं। मैं तो रागियों की बात किंचित भी मानने को तैयार हुआ ही नहीं हूँ। होता भी नहीं हूँ। पर जो ध्रुव सत्य है, उसे कहने में कभी चूक नहीं करूँगा। तो जो मति-श्रुत ज्ञान है, वह अखण्ड आत्मा का ही गुण है, इसलिए ज्ञानानुभूति ही आत्मानुभूति है।
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