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________________ समय देशना - हिन्दी १८ । जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से रहित हैं, ऐसे सिद्धों की वंदना है और शुद्धस्वभाव से युक्त हैं और अमल (निर्मल) हैं, और अचल हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव भाव ये पंच-परावर्तन - संसार से रहित हैं। ऐसे अचल परमेश्वर हैं, अद्भुत स्वभाव से युक्त हैं, उपमा से रहित हैं, अनुपम हैं । सम्बन्ध अभिधेय, प्रयोजन आत्मा है, प्रयोजन यानि सिद्धि और अविधेय यानि जानने योग्य है। सिद्ध तो शुद्ध, ध्रौव्य चैतन्य द्रव्य हैं । समयसार का अर्थ जो सम्यक् बोध है, जिससे समीचीन आत्मा का बोध होता है, ऐसा समय आत्मा है। अथवा समान एकीभाव से प्राप्त हो, गमन करे, ऐसा सार शुद्ध अवस्था में आत्मा, ऐसा प्राभृत, समयप्राभृत। इस प्रकार से श्रुतकेवली द्वारा कहा गया, सर्वज्ञ गणधरदेव के द्वारा कहा गया, ऐसा समयसार है । व्याख्यान = टीका, व्याख्येय = गाथा आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा । इन दोनों का सम्बन्ध व्याख्यान - व्याख्येय सम्बन्ध है । सूत्र अभिधान है, सूत्र का अर्थ अभिधेय है । ये अभिधान - अभिधेय सम्बन्ध है । इस ग्रन्थ का प्रयोजन क्या है ? शुद्धात्म ज्ञान की प्राप्ति ही इस ग्रन्थ का प्रयोजन है । दूसरी गाथा स्वसमय और परसमय का कथन कर रहे हैं। ध्यान रखना, इस ग्रन्थ को बड़ी तन्मयता से समझना और किंचित भी भ्रमित नहीं होना । जहाँ निश्चय का व्याख्यान हो, उसे निश्चय की अपेक्षा से ग्रहण करना और जहाँ व्यवहार का व्याख्यान हो, उसे व्यवहार की अपेक्षा से ग्रहण करना । लेकिन एक-दूसरे में जोड़कर विवाद नहीं करना, क्योंकि अभी तो मंगलाचरण हुआ है, अभी ग्रन्थ के अन्दर प्रवेश कहाँ किया आपने ? जब मंगलाचरण इतना गहरा है, तो ग्रन्थ तो बहुत गहरा है। क्योंकि यहाँ पर प्रत्यय को कोई स्थान नहीं दिया जाता है । यह तो आपका अहोभाग्य है, जो आज सुन रहे हो । जीवों ! अब सुन ही लो। मुनि होना मात्र स्वसमय नहीं है। मुनि होकर भी परसमय में चला जाता है जीव । स्वसमय की दशा तो अविकल है, जो व्याख्यान का विषय नहीं है, अनुभूति का विषय है । 'मैं मुनि हूँ', ये शब्द भी तो पर समय है। मैं मुनि हूँ इसलिए आप सुन रहे हो। कोई भिन्न पुरुष कहता तो भाग जाते। हे मुनियो, त्यागी - व्रतियो! इस देहधर्म को तू मुनि मान रहा है। मुनिमुद्रा तो अनंतबार मिली है, पर मुनिस्वरूप एक बार मिल गया होता, तो पंचमकाल में क्यों आने को मिलता ? मुनिधर्म तो अनेक बार मिला, पर मुनिस्वरूप नहीं मिला। यह समयसार मुनिमुद्रा का नहीं है, यह स्वसमय मुनिस्वरूप का है । कितनी बार मुनि बना, लेकिन जो था, उससे नहीं मिला। हे जीव ! दर्शनज्ञान - चारित्र में स्थिरता है, उतना ही, वही समयसार जानो । वही स्वसमय सुसमय है। मैं मुनि हूँ, मैं कर्मनिहित हूँ, मुझे कर्मनाश करना है यह पर समय की भाषा है, स्वसमय नहीं है। हे मुमुक्षु ! तू परसमय को जान । कर्मप्रदेश का स्थिरपना, कर्मप्रदेश का चिन्तनपना, कर्मप्रदेश का व्याख्यानपना, यह सब पर समय है । स्व समय में स्थिर होगा, तब तू समयसारभूत होगा । य एवमुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम् । विकल्पजालच्युतशान्तचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिवन्ति ॥६९॥ आ.अ. कलश ॥ जहाँ ये पक्षपात विलीन हो जायेगा, स्वरूप में लीन हो जायेगा, तब स्वसमय में लीन होगा । मैं शुद्धात्मा हूँ, ऐसा कहनेवाला भी पर समयी है, क्योंकि मैं शुद्ध आत्मा हूँ, ये मैं शब्द भिन्न में है । तू भिन्न में लीन तू भिन्न में चला गया। जो स्वसमय में होगा, उसे भी भूल जायेगा। वो तो लीन ही होगा । क्यों ? स्थिर होना स्वसमय है, कहना स्वसमय नहीं है, पर समय है। जितने जितने व्याख्यान हैं, ये सब पर समय हैं। जो व्याख्यानातीत है, वो स्वसमय है । इसलिए उपयोग की दशा क्या होगी ? वह उपयोग में ही होगी । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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