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________________ ३१० समय देशना - हिन्दी ध्रुव शुद्ध पृथकत्वभाव है, अन्य नहीं है । अनन्य है । जो आत्मा की अनुभूति है, वही सम्पूर्ण जिनशासन की अनुभूति है, जो श्रुतज्ञान है, स्वयं आत्मा ही तो है। ज्ञानानुभूति ही आत्मानुभूति है । जो विकारी भावों से शून्य है वह चिन्द्रूप है। ऐसा परम योगीश्वर ज्ञानी योगीन्दु के गोचर है । दर्पण तो स्वच्छ ही होता है । यदि दर्पण पर रज चढ़ा हो, तो वह भी फीका ही दिखता है। इसलिए आपको शुद्धानुभूति नहीं है। शुद्धात्मानुभूति राग-द्वेष नहीं करता । ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥ आचार्य कुन्द-कुन्द स्वामी ने समयसार जी में अद्भुत सूत्र प्रदान किये। यह ध्रुव आत्मा अनुभव - गम्य है, और आज जिस विषय को आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कहने जा रहे हैं, वह विषय अत्यन्त गंभीर, और परम शान्ति से समझने का विषय है। परमज्ञान को पर ज्ञेय का विषय बनाये हो, अध्यात्म का विषय अब प्रारंभ हो रहा है। जो स्वानुभूति की चर्चा बार-बार चल रही है, वह अध्यात्म की स्वानुभूति जब तक पर ज्ञेयों को ज्ञेय बना रहा है, तब-तक वह स्वानुभूति नहीं है । बहुत सैद्धान्तिक विषय शुरू हो रहा है। अब यहाँ जो स्वानुभूति का निषेध कर रहे हैं, वे कह तो सत्य रहे हैं, लेकिन जैसा कहना चाहिए, उस भाषा में कहें तो समझ में आता । एक सामान्य स्वसंवेदन, जो कि सम्पूर्ण द्रव्यों को हो रहा है। एक अध्यात्म का स्वसंवेदन, आज उसकी चर्चा करना है । उसको भी तन्मयभूत होकर समझना है। क्योंकि, यह विषय निश्चय व व्यवहार दोनों पक्षों के जीव समझ नहीं पा रहे हैं। कोई तो 'शुद्धोऽहं, बुद्धोऽहं शब्द का प्रयोग कर रहे हैं, उसे ही स्वानुभूतिमान बैठा है, तो कुछ जीवों ने स्वानुभूति शब्द आत्मा से निकाल ही दिया है। अहो ज्ञानियो ! शुद्धोsहं, बुद्धोऽहं जो शब्द चल रहा हैं यह शब्द के ज्ञेय के विषय का अनुभव कर रहे हो आप, वह स्वसंवेदन है, लेकिन जो स्वानुभूति समयसार ग्रन्थ में है, वह अभी दूर है, और संवेदन का निषेध ही कर दिया, उनसे कहना कि आपने जीव द्रव्य के स्वभाव का ही निषेध कर दिया । कल प्रारंभ किया कि आत्मा अबद्ध है, अनन्य है, असंयुक्त है, अविशेष है। इन चार से आत्मा युक्त है। ऐसा जो जानता है, वह सम्पूर्ण जिन शासन को जानता है। जो ज्ञानानभूति है, वही आत्मानुभूति है । ज्ञेयानुभूति नहीं । आप पकड़ना, आज मैं आपको उस स्थान पर ले जाना चाहता हूँ, जहाँ आचार्य कुन्दकुन्द भगवान वर्द्धमान को वर्द्धमान होते हुए अनुभव किया हो। जब तक शुक्लध्यान नहीं बनता जब तक क्षपक श्रेणी आरोहण नहीं होता, जब तक कैवल्य प्रगट नहीं होता, जब तक कि ज्ञानानुभूति नहीं होती । ज्ञेयानुभूति नहीं, ज्ञानानुभूति । ज्ञेयानुभूति जब तक है, तब तक ज्ञानानुभूति नहीं है । पर ज्ञेयानुभूति ज्ञानानुभूति से ही होती है। फिर भी, ज्ञेयानुभूति शुद्ध ज्ञानानुभूति नहीं है, मतलब क्या हुआ ? यह पेन है, यह पर - ज्ञेय है, जब मैं इस पेन को निहारता हूँ, तब अपने आत्मा के ज्ञान गुण का प्रयोग मैं पर बाह्य ज्ञेयों में कर रहा हूँ, इसलिए जो पेनानुभूति हो रही है, वह ज्ञान से हो रही है, स्वसंवेदन से हो रही है, फिर भी स्वसंवेदन नहीं है। जब तू इस पेन को देख रहा था, तो प्रवचनसार की भाषा में उस समय तेरा ज्ञान ज्ञेयाकार हो गया । प्रश्न- क्या कभी ज्ञान का ज्ञेयरूप परिणमन होता है ? प्रतिप्रश्न क्या, नहीं होता क्या ? उत्तरज्ञान भी ज्ञेयाकार होता है, परन्तु ज्ञान ज्ञेयाकार नहीं होता है, और दोनों शब्द में प्रवचनसार से बोल रहा हूँ। दर्पण में चेहरा तभी दिखता है, जब दर्पण में बिम्ब गया न होता । ज्ञेय ज्ञान में न झलके, तो ज्ञान कैसे हो? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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