SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०७ समय देशना - हिन्दी बैठा है। पर चारित्रमोहनीय के कारण भाई पर ही चक्र चला दिया। जगत के जीवों के प्रति या तो माता बनो, या महात्मा बनो । पड़ोसी का बेटा तुम्हारे काम नहीं आयेगा, वैसे ही तेरा बेटा काम में नहीं आयेगा । अत्यन्ताभाव है । इसलिए एक जीव के कारण दूसरे जीव पर राग-द्वेष करना छोड़ दो। मैं इन शिष्यों को भी समझाता हूँ, मैंने तुम्हें दीक्षा दी है अत: श्रद्धा भक्ति रखना, पर दूसरे गुरु के प्रति अनादर भाव मत रखना । क्यों ? यह पूर्व से संचित नियोग है जो आप हमारे पास हो और हम आपके पास हैं। पर ध्रुव सत्य है, कि स्वभाव ही साथ रहेगा, संयोग मिटेगा । जब तक समयसार की आँख नहीं आयेगी, तब-तक श्रमण का समत्वपना नहीं आयेगा, और जैनी का जैनत्व नहीं बचता । सुनते-सुनते आप सभी के चेहरे उतरे दिखते हैं, घर में माँ बनकर नहीं, महात्मा बनकर रहना । माँ में राग-द्वेष हो जाता है, एक का दूसरे के प्रति । विषयानुभूति भिन्न है, स्वानुभूति भिन्न है। दोनों में अन्तर है । आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या, ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्ध्वा । आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकम्पमेकोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समन्तात् ॥१३॥ अ.अ.क.।। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं, जो आत्मानुभूति है, वह शुद्धभावात्मक है । जो ज्ञानानुभूति है, वही निश्चय से आत्मानुभूति है। ऐसा जानकर अच्छी तरह से, चारों ओर से, नित्य ही ज्ञानधन स्वरूप है, आत्मा में आत्मा को निवेश करके, प्रवेश करके निश्चल, निष्कंप एक जो है ध्रुव आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञान आत्मा है, ज्ञानानुभूति जो है, वही आत्मानुभूति है । निर्विकल्प, निराकार, चिदानंद चैतन्य, ज्ञानधन में लवलीन, परमयोगीश्वर, सराग से निवृत्त, वीतरागता से लिप्त ऐसा परम योगी शुद्धात्मा से आत्मा में वेदता है । परन्तु जो सामान्य जीव हैं, वे सामान्य ज्ञान से सामान्य वस्तुओं में वेदन कर रहे हैं। वह शुद्ध पक्ष में नहीं है, इसलिए व्यवहार से हम आत्मानुभूति नहीं कहते हैं। है तो आत्मानुभूति, पर शुद्धात्मानुभूति नहीं है । वह सामान्य ज्ञानानुभूति है । जो सामान्य ज्ञानानुभूति है, वह भी आत्मानुभूति है । मति श्रुत जो ज्ञान है, वह किसकी पर्याय है? ज्ञान कोई पर्याय नहीं है, ज्ञानगुण की पर्यायें मति व श्रुत ज्ञान हैं, ज्ञान किसकी पर्याय हैं? ज्ञान आत्मा का गुण है। जो मति व श्रुत पर्याय हैं, लक्षण व संज्ञा प्रयोजन की अपेक्षा से ही भिन्नत्व रूप में दिखती हैं। पर ज्ञायकत्व भाव से देखोगे, तो ज्ञान भी आत्मा ही है। विद्वता का निखार अष्टसहस्री से आता है। ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥ aga आचार्य भगवान् कुन्दकुन्द स्वामी अध्यात्म-आलोकित सूर्य हैं जिन्होंने, मनीषियो ! आत्मा के द्रव्य स्वरूप का कथन किया । वह आत्मद्रव्य जगत के सम्पूर्ण विभाव भावों से भिन्न है । जयसेन स्वामी की टीका देखें, उससे पहले पन्द्रहवीं कारिका का अर्थ समझें । आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी की इन दोनों गाथाओं की टीका अपने आप में अलौकिक है । वे योगीश्वर एकत्व - विभक्त स्वरूप पर दृष्टिपात करते हैं हे ज्ञानी ! नाली तो शुद्ध ही बनाई जाती है, साफ ही बनती है, फिर भी नाली में कीचड़ हो जाता है, और समय-समय पर आप घर की नाली को साफ करते हैं । यदि उसे आप साफ नहीं करेंगे, तो घर में कीचड़ आ जायेगा । चारित्र निर्दोष ही धारण किया जाता है, लेकिन उसमें भी जीव के मन में मन की मलीनता की कीचड़ कहीं आ जाये, उसके लिए आचार्य भगवन्तों ने कहा कि प्रतिक्रमण करो । अतिक्रमण का अभाव करना प्रतिक्रमण है और इन सबका उद्देश्य I Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy