SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय देशना - हिन्दी ३०३ जिनमें भरा जाता है, वे सत्य नहीं होते। इसलिए आत्मा का स्वभाव जलेबी नहीं है, आत्मा का स्वभाव मिश्री है, मिश्री में मीठापन भरना नहीं पड़ता, मीठी होती है। विकारी भाव जलेबीरूप है । परन्तु अविकारी भाव तो मिश्रीरूप ही है | विकारी भाव आते हैं, उसे हटा दो, तो बचा क्या स्वभाव भाव ? स्वभाव भाव लाना नहीं पड़ता है, होता है । जिसकी महिमा आत्मा से जानी जाती है। जो नित्य ही कर्मकलंक से भिन्न है । दर्पण देखने से चेहरे को नहीं छोड़ते। हम भगवान में अपने चेहरे को देखने जाते हैं, पर चेहरे को छोड़ते नहीं । समयसार कह रहा है, कि आप मेरे को पढ़ कर अपने को देख लो, पर मुझे मत छोड़ना, वरना मेरे देखे बिना तुम दिखोगे कैसे ? शाश्वत देव हूँ। चंदन के वृक्ष में लिपटे साँप मयूर की आवाज सुनकर ढीले पड़ जाते हैं । भगवान् की भक्ति से हमारे कर्मकलंक ढीले पड़ जाते हैं । ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥ qqq आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने बारहवें कलश में बहुत ही सुन्दर व्याख्या की है। पानी के ऊपर कमल है, पानी के ऊपर शैवाल है, पानी के उपर सिगाड़े की बेलें हैं। ये सब पानी में होने पर भी ऊपर-ऊपर ही रह पायेंगे, उनके अन्दर न ही रह पायेंगे, लेकिन, अहो कमल ! तू जल को कमल ! नहीं कर सकता। हे पत्र! शैवाल कितना ही कोई कहे कि पानी को शैवाल ने विकृत किया है। परन्तु यह विकार शैवाल का शैवाल में ही है। पानी में विकार न शैवाल से हुआ, न होगा। ध्रुव सत्य समझना, आच्छादित अवश्य है, पर शैवाल को हटा कर देखो तो पानी जैसा था, वैसा ही है। इसलिए ध्यान दो, जैसे शैवाल पानी को आच्छादित किये है, पर शैवाल से पानी के गुणों का विनाश नहीं हो रहा, उसी प्रकार आत्मा कर्म अवस्थित है, हे कर्म ! आप आत्मा को ढँके हो, यह सत्य है; आप आत्मा को पराधीन किये हो, यह भी सत्य है; फिर भी ध्रुव सत्य यह है, कि कर्म कभी आत्मा को कर्मरूप नहीं कर पायेंगे। यदि कर्म आत्मा को कर्मरूप कर लेंगे, तो आत्मा जड़ हो जायेगी । कर्म चेतन नहीं है, कर्म जड़धर्मी है, चेतनगुण के साथ मिश्रधारा है। कर्म कहेगा, आत्मा बध्य है, संसारी है, इत्यादि सिद्धान्त ग्रन्थ कहेंगे, सत्य है, पर उस बध्यता के अन्दर भी निर्बन्ध भगवान् - आत्मा है। बध्य में निर्बध्यता को नहीं जान पाये तो सम्यग्दर्शन कैसा ? और जो-जो निर्बन्ध हुए हैं, वे बन्ध को न मानें तो सम्यग्दर्शन कैसा? एकांकी नहीं बनना। मोक्ष शब्द कहता है कि मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ, कोई किसी से बन्धा हो या न बन्धा हो, पर मैं तो बन्धा हूँ। क्योंकि मोक्ष है, इसका मतलब कहीं बन्धा है, जो पूर्व से खुला है, उसको आप खोलने की बात करते क्या ? जो बन्धा होता है, यही खुलता है । अहो मुमुक्षु ! तुम्हें इतना भी भान नहीं है क्या ? समयसार निर्बन्ध दशा का ज्ञान कराने वाला ग्रन्थ है, समसयार निर्बन्ध बनाने वाला ग्रन्थ नहीं है | निर्बन्ध बनना है, तो मूलाचार के पास जाओ - I मग्गो मग्गफलंति यदुविहं जिणसासणे समक्खादं । मग्गो नक्खउवाओ तस्स फलं होइ णिव्वाणं ॥ २०२॥ मूलाचार।। मार्ग और मार्ग का फल, जिनशासन में दो ही बाते हैं। इस समयसार ग्रन्थ को समझना है, तो 'नियमसार' को भी समझो। रत्नत्रय मार्ग है, 'निर्वाण' मार्ग का फल है। निर्वाण दशा कैसी है ? शाश्वत ध्रुव आत्मा कैसी है? यह कहने वाला समयसार है । प्राप्ति कैसे होगी, यह उपाय की बात क्यों छोड़ रहे हो ? मिश्री से मुख मीठा होता न, खाने के साथ यह समझो। मिश्री बनती कैसे है? गन्ने के अन्दर मिश्री है, कि नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy