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समय देशना - हिन्दी कर्मप्रदेश, बन्ध अपेक्षा एकमेक हैं, परन्तु अध्यात्म शास्त्र यहाँ एकमेक कह कर आपको उनसे विरत कैसे करेंगे? एक मेक होने पर भी जिसे सिद्धान्त एकमेक कह रहा है, तब भी एक मेक तो हो सकते हैं, परन्तु एक रूप नहीं हैं। आत्मप्रदेश व कर्मप्रदेशों का एकमेक हो जाना, यह बन्ध है। दुग्ध में पानी का मिल जाना जैसे है, वैसे ही आत्मा में कर्म का बन्ध है । फिर भी हंस जैसे कि दूध-नीर को अलग कर लेता है, ऐसे ही सम्यग्दृष्टि जीव अबन्ध आत्मा को निहारता है। सम्यग्दृष्टि जीव बन्ध अवस्था में भी निर्बन्ध अवस्था को निहारता है । यदि निर्बन्ध आत्मा को नहीं देख पायेगा, तो बन्ध के खोलने का अभिप्राय तेरा क्या है ? बहुत भ्रम है लोगों को क्यों ? चतुर्थ आदि गुणस्थान में बध्य आत्मा को निर्बध्य नहीं जानोगे, नहीं पहचानोगे, तो आपको चतुर्थ आदि गुणस्थान का अभिप्राय क्या है ? आप किस नाम पर चतुर्थ गुणस्थानवर्ती हो गये हो ? यह प्रश्न है हमारा। बद्ध अवस्था में निर्बद्ध अवस्था को नहीं समझते हो । ध्यान देना, मैं निर्बन्ध अवस्था को समझने की बात कर रहा हूँ, उसे निर्बन्ध मान मत बैठना । भेदविज्ञान किसका ? दोनों तरफ गड़बड़ चल रही है। जो निर्बन्ध ही मान रहा है, फिर भेदविज्ञान किसका ? जो बन्ध स्वभाव ही मान रहा है, उसका भेदविज्ञान किस बन्ध अवस्था में, आत्मा को निर्बन्धस्वभावी माने। इन अवस्थाओं को वेदन करना पड़ेगा, अनुभूति में लाना पड़ेगा, और निर्बन्ध स्वभावी आत्मा को भी बन्धरूप स्वीकारना पड़ेगा, ध्यान रखना । क्योंकि कुन्दकुन्द देव कह रहे हैं कि यह विषय मस्तिष्क का विषय है, अत: अन्दर की आँख से समझिए ।
बन्ध को छेदकर ही निर्बन्ध होता है । बन्ध का छेद क्यों किया ? निर्बन्ध को जाना, तभी तो किया। यह है निश्चय - व्यवहार का व्याख्यान ।
इस व्याख्यान में भी पुण्य चाहिए, तब आप सम्यक् व्याख्या कर पायेंगे, और यदि पाप का बन्ध तेरी आत्मा में बंधा है, तो आप सम्यक् व्याख्या नहीं कर पायेंगे। ध्यान रखना, जिसका अशुभ आयु का बन्ध होने जा रहा है या हो चुका है, वह कहीं न कहीं तत्त्व का विपर्यास नियम से करेगा। अगर अशुभ नहीं बोलता होता, तो अशुभ आयु का बन्धक होता कैसे ? प्रश्न तो यह है । हे क्षायिकसम्यग्दृष्टि तू ! नरक जा रहा है, वह क्षायिक सम्यक्त्व के कारण नहीं जा रहा। तू सम्यक्त्व के पहले अशुभ प्रवृत्ति कर चुका था । आयुबन्ध टलता नहीं । अपकर्षण तो हो सकता है, लेकिन संक्रमण नहीं होता। यह करणानुयोग के सिद्धान्त का नियम है। आप सिद्धान्त तभी बोलना, जब आपको आता हो, क्योंकि समाज भोली है, आप जोर से बोल दोगे, कि सिद्धान्त कहता है, और किसी ने गलत श्रद्धान कर लिया तो आपने लाखों-लाखों जीवों का अहित किया । नोकर्म को भिन्न देखूँ, भावकर्म को भिन्न देखू, द्रव्यकर्म को भिन्न देखूँ, और इन तीनों के मध्य में विराजी भगवान् - आत्मा को भिन्न देखूँ । क्यों देखूँ ? ध्यान दो । कर्म, नोकर्म भावकर्म ये तीनों वर्तमान में आत्मा की ही परिणति हैं। मैं द्रव्यकर्म को भी आत्मा की परिणति कह रहा हूँ, ध्यान रखना । आत्मा की परिणति न बने, तो कार्माण वर्गणाएँ कर्मरूप में कैसे बने ? ऐसा मुमुक्षु जीव निर्दोष ज्ञानी बनकर व्याख्यान करे । परन्तु, क्या करूँ? रूढ़िवादी ज्यादा हैं, परम्परावादी ज्यादा हैं, जबकि ज्ञानी कम हैं। सच्चा मोक्षमार्गी होगा तो वह तत्त्व को स्खलित नहीं करेगा। जैसा होगा, वैसा ही कहेगा ।
बद्ध को बद्ध निहारिये, अबद्ध को अबद्ध निहारिये । बन्ध स्वभाव नहीं है, मैं निर्बन्ध हूँ, पर बन्धा न होता, तो निर्बन्ध को कहता कौन ? जो-जो निर्बन्ध का व्याख्या करते हैं, वे सब बन्धक ही होते हैं। जो निर्बन्ध नहीं होते हैं, वे व्याख्यान नहीं देते हैं, वे सिद्ध मात्र होते हैं। अरहंत व्याख्यान देते हैं, वे बन्धक ही हैं । अरहंत को बन्धक नहीं मानोगे, तो वे अबन्धक बने कैसे ? अर्द्धनारीश्वर हैं । आचार्य जिनसेन स्वामी ने अर्द्धनारीश्वर को नमस्कार किया है। अरि यानी शत्रु । हे प्रभु! आपने आठ में से चार कर्मों का नाश किया है,
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