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समय देशना - हिन्दी पानी को गर्म कहने वाले बहुत है, पर गर्म को गर्म नहीं कहने वाले कम है। यह है सूक्ष्म तत्त्व । पानी की उष्णता स्वभाव नहीं, सोपाधिक दशा है। ध्यान दो, आत्मा और कर्म में भेद देखो। पानी उष्ण है, कि नहीं? पानी में उष्णता है क्या ? पानी की उष्णता है, कि पानी उष्ण है ? पानी उष्ण नहीं है, पानी में उष्णता है, यानी पर से आई है, पानी में नहीं है । उष्णता तो अग्नि की है, लेकिन विभाव के कारण पानी गर्म कहला रहा है । सत्यार्थ निहारिये, पानी में उष्णता नहीं है, उष्णता अग्नि में है । घृत से अँगुली जल गई, तो क्या करूँ ? घृत रख दो, शीतल हो जायेगी ।
घृत से अँगुली जली होती, तो उस पर घृत ही क्यों रखा जाता ? घृत अग्नि के संयोग में आया तो अँगुली जलाने लग गया। अग्नि का संयोग घट जाये, तो घृत अँगुली को जलाता नहीं । घृत तो शीतल ही है। ज्ञानी ! आत्मा जला रही है क्रोधी की । आत्मा नहीं जलाती किसी की । आत्मा में विसंयोगी भाव, विजातीय भाव, कषायिक भाव कर्म के कारण हैं। वह संयोग जला रहा है, आत्मा किसी को नहीं जलाती । भी भगवान् आत्मा है । समयसार यहाँ नहीं समझना, आज से घर में लगाना । जब क्रोधी आप पर बरसने लग जाये, वहाँ लगाना । यह क्या बरसेगा, ये तो भगवान् - आत्मा है । यह तो अग्नि का संयोग बरस रहा है। यह तो कषायभाव है, मिश्र भाव है। यह हट जाये, तो अन्दर क्षमा-भाव है। ऐसा चिन्तन करना, कोशिश नहीं करना । पर्याय पूरी निकली जा रही और आपकी कोशिश ही चल रही है ।
ज्ञानी ! यह कोशिश कब तक चलेगी ? अब कोशिश नहीं, अब कुछ करना है। जैसा होता है वैसा नहीं करना । जैसी कषाय आती है, वैसा नहीं करना है। यानी जिससे कषायिक भाव आते हैं, विकारी भाव आते हैं वे नहीं करना ।
आप ससुराल जाते हो, वहाँ पर कोई पत्तल में भोजन दे दे, तो अपमान समझोगे, और चाँदी के बर्तन में भोजन कराया जाये, फिर देखो। वह बर्तन साथ में लेकर आओगे क्या ? नहीं मिल रहा, फिर भी खुश हो रहे हो ।
मुझे तो द्रव्य दिखता है । द्रव्य किसमें है? वह पर्यायें नहीं दिखती हैं। वह भगवान् - आत्मा को समझने वाला है। सोने, चाँदी की थाली, पत्तल ये तो पर्याय पर रखा द्रव्य था, द्रव्य तो भोजन था, भोजन खा लेना चाहिए था । यह मत देखो, कि यह तिर्यञ्च, यह मनुष्य, यह अमुक जाति का है। यह देखोगे तो आप भगे - भगे फिरोगे। उन सब में जीवद्रव्य देखोगे, तो भगवान् - आत्मा हैं। बहुत कठिन है, पर है सत्य । सम्पूर्ण जप-तप की साधना एक पलड़े पर रख दीजिए आप एवं जिनलिङ्ग दशा में स्वात्मानुभूति का अभ्यास, तो इसी अभ्यास से ही मोक्ष मिलेगा। बर्तन यानी थाली । बर्तन तो अन्दर का होना चाहिए। आप बर्तन को देखकर वर्तन बिगाड़ रहे हो, नरतन को बिगाड़ रहे हो, वर्तन यानी परिणमन। एक में ब है, एक में व है । एक अक्षर में अर्थ बदलता है ।
आत्मा में कर्म हैं, आत्मा कर्म नहीं है। आत्मा में रागद्वेष हैं, आत्मा राग-द्वेष नहीं है । आत्मा में कामादिक विकार हैं, आत्मा कामादिक नहीं है। आत्मा में अस्तित्व आदि अचेतन धर्म हैं, पर आत्मा ज्ञायकभाव से अचेतन नहीं है। फिर भी आत्मा अचेतन भी है। आचार्य अकंलक स्वामी की प्रज्ञा कितनी विशाल होगी। यह भी सामायिक का विषय बना लिया करो ।
आगम अविसंवादी होता है। क्रमबद्ध नहीं होता है । अष्टसहस्त्री में पढ़ लेना ।
क्रमभावी ज्ञान अक्रमभावी ज्ञान
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