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________________ १६ समय देशना - हिन्दी किसने दिया ? तद्जन्य कषायों की प्रकृतियों का उपशमन करेगा, और जितनी प्रकृतियों का उपशमन करेगा, उतनी प्रकृतियों के उपशमन से कोई गुण प्रकट होगा कि नहीं होगा ? जो प्रकट होगा, वह चेतन में होगा, कि अचेतन में होगा ? जो चैतन्य में होगा, उसकी अनुभुति चेतन करेगा, कि अचेतन करेगा? इसलिए उसे भी अनुभूति होगी। श्रुतकेवली भी स्वयं अनुभवक हैं। जो श्रुतकेवली भगवन्त ने कहा है न, वह भी स्वयं अनुभव करके कहा है, इसलिए प्रामाणिकता को प्राप्त है। अरे ! हम उस वैद्य के पास जाते हैं, जो वैद्य अनेक लोगों को ठीक किये होता है, तो हम उसको प्रमाणित मानकर उसका प्रचार-प्रसार करते जाते हैं। ऐसे ही, ज्ञानी! जिसने स्वयं अनुभूति ली है, स्वयं अपने अनुभव से जानकर कहा है, ऐसे सर्वज्ञ की वाणी को श्रुतकवेली ने कहा है, इसलिए सर्वज्ञ की वाणी ही प्रमाणित है। समय यानी आत्मा । उस आत्मा को प्रकाशित करनेवाला यह प्राभृत शास्त्र,यह समयसार ग्रन्थ है और यह अरहंतदेव के प्रवचन का अंग है, अवयव है, इसलिए मुझे स्वीकार है। ध्यान देना, ये अरहंत के प्रवचन का अवयव है, इसमें अपने मन का नहीं जोड़ देना । अपने मन का जोड़ दोगे, तो अरहंत का अंग अविशुद्ध हो जायेगा । इनको विशुद्ध ही रहने दो, इसमें अपना मत नहीं जोड़ो। आपको अपना मत (अंग) जोड़ना हो, तो अपने नाम का ग्रन्थ बनाओ। उसे आचार्य कुन्दकुन्द का या अमृतचन्द स्वामी का मत कहो । जिनको आपको सुनना या पढ़ना हो, वो सुनेंगे पढ़ेंगे। जिसे नहीं सुनना है, वह आपका नहीं सुनेंगे, कुन्दकुन्द को ही सुनेंगे। - ज्ञानी ! जैसे हरी-लाल चिट लगी है आपकी खाद्य सामग्री पर, ऐसे आपको कुछ लिखना हो तो लाल चिट लगा देना, अपना नाम लिख देना। बिना चिट के कुन्द-कुन्द में अपनी हरी चिट लगाओगे, तो व्यभिचार हो जायेगा । ये बुद्धि का व्यभिचार है । मैं प्रतिदिन कहता हूँ कि जिनवाणी जगत्कल्याणी है, जनवाणी जगत्कल्याणी नहीं है। जिनवाणी कहने में हृदय को संकुचित मत करो। "केवलिश्रुतसंघ-धर्म-देवाऽवर्णवादो दर्शनमोहस्य' (त.सू.)। ६/१३ जिनवाणी की गद्दी पर बैठकर अपनी बात रखना अच्छी बात नहीं है। यहाँ जो भी बैठे हैं, ये सब ज्ञानीजीव हैं। ये मुझे सुनने नहीं आये, ये मेरे मुख से जिनवाणी सुनने आये हैं। तो मेरा भी कर्त्तव्य बनता है कि मैं जिनवाणी ही सुनाऊँ । मैं वक्ता तो हो सकता हूँ, पर बकता नहीं बनना चाहता । सम्यग्दृष्टि जीव तत्त्ववक्ता तो हो सकता है, पर बकता नहीं है । जो तत्त्व में अपनी बात मिला देता है, वह वक्ता नहीं होता है, वह बकता मात्र है। इसलिए वक्ता बनना है, बकना नहीं है । हे ज्ञानियो ! जिसमें आत्मतत्त्व निहित नहीं है, स्वात्मतत्त्व निहित नहीं है, वह बकता तो हो सकता है, वक्ता नहीं हो सकता। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने प्रश्न किया था न "अध्यात्म अमृतकलश'' में, प्रभो ! मेरे मोह का विगलन कैसे हो? परपरिणति-हेतुर्मोह नाम्नोनुभावादविरत - मनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः । मम परम विशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्तेर्भवतु समयसार व्याख्ययैवानुभूते: |३||अ.अ.क.॥ पर परिणति में जाने का हेतु मोह है । हे मुमुक्षु ! अर्हत प्रवचन को सुनेगा, तो मोह स्वयं का भी विगलित होगा और पर का भी विगलित होगा। इस पंचमकाल में एक ही उपाय है, जगत् में वीतराग वाणी, जो कषाय का उपशमन रख सकती है, अन्य कोई साधन नहीं है। संघ में भी ज्यादा बैठेगा, तो वहाँ भी खटपट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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