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________________ समय देशना - हिन्दी २८१ पाठ अपने ही मंदिर में कर रहा है । द्रव्य - मिथ्यात्व से बच गया, इतना तो अच्छा है। पर समयसार कहेगा, कि बिल्कुल अच्छा नहीं है। अपने स्वरूप में रहना, तो सात तत्त्व सम्यक्त्व नहीं हैं, सम्यक के साधन हैं। यद्यपि नौ पदार्थ को भूतार्थ कहा है, फिर भी अभेद रत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प समाधि के काल में अभूतार्थ हो जाता है। ऐसा विशद् वर्णन जैसा आगम कह रहा है, वैसा वक्ता करता चला जाये, तो कहीं भी विकल्प / विवाद नहीं आयेंगे। आगम में विवाद नहीं है, आगम तो अविसंवादी है। व्यक्ति के निजी सोचों में विसंवाद है, समयसार में कोई विवाद नहीं है । इतने दिन हो गये इस ग्रन्थ को सुनते-सुनते, आपको कभी महसूस हुआ, कि इसमें कोई विसंवाद की बात लिखी है? इस ग्रन्थ में कहीं विसंवाद नहीं, वह अविसंवादी है । निजानन्द का ग्रन्थ है। इसका मतलब है, कि ग्रन्थिधारी राग की ग्रन्थि में विसंवाद करा दिया। कहीं खींच देते सत्य है, कहीं खींच देते असत्य है। दोनों नय कहिए, कारण व कार्य । जब हम कारण की अपेक्षा कहेंगे, तो सत्य है, परन्तु कार्य की अपेक्षा असत्य है । प्रथम सीढ़ी सत्य है, कि असत्य ? सत्य है । पर ऊपर को चढ़ जाओ तो ? अप्रयोजनभूत हो गई, असत्य है । लेकिन अभाव किसी का मत कर देना । इसलिए सविकल्प दशा में नौ पदार्थ एवं शुद्ध निश्चयनय से एकमात्र शुद्धात्मा ही उद्योतमान / प्रकाशमान है। उसकी ही अनुभूति लीजिए । अनुभूति, प्रतीति, स्वात्मोपलब्धि, यह सब शुद्ध सम्यक्त्व है, ऐसा जानना । यह अनुभूति गुण-गुणी में निश्चयनय से अभेद-विवक्षा से शुद्धात्मा का स्वरूप है ऐसा तात्पर्य समझना, और जो प्रमाण नय निक्षेप है, वह परमात्म तत्त्व के विचार काल में सहकारी कारण है, भूतार्थ होने पर भी । ये सविकल्प अवस्था में ही भूतार्थ है, परन्तु परम समाधि के काल में अभूतार्थ है । भूतार्थ एकमात्र शुद्ध जीव है, ऐसा जानना चाहिए। ज्ञानी ! निज शुद्धात्मा ही परम भूतार्थ है, शेष ज्ञेय है, हेय है, एकमात्र परम शुद्धात्म परम उपादेय है, ऐसा जानना चाहिए । ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥ aaa आचार्य भगवान कुन्दकुन्द स्वामी ग्रन्थराज समयसार जी में वस्तुस्वरूप का व्याख्यान करते हुए समझा रहे हैं। आत्मा जो है वह स्यान्दीभूत है सहज है, और आत्मा ही नहीं छः द्रव्य सहज है । सहज का विपर्यास मत कर बैठना किसी जीव ने अब्रह्म का सेवन किया, और यूँ कहने लग जाये कि यह तो सहज है। हे ज्ञानी ! इसे तू सहज स्वरूप बना देगा, तो सहज भगवत् स्वरूप कब प्रगट होगा। आचार्य प्रभाचंद स्वामी ने 'प्रमेय कमल मार्तण्ड' नाम के ग्रन्थ में, सहज शब्द का बहुत खण्डन किया। क्यों किया, क्योंकि जगत के लोगों ने सहज शब्द को लेकर विपर्यास खड़ा कर लिया, बोले, मकड़ी जाल बुन रही है, सहज नहीं है । मकड़ी का जाल बुनना सहज नहीं है, अपनी आहार संज्ञा की पुष्टि के लिए जाल फैलाती है, जीवों को फँसाने के लिए, यह सहज नहीं है। राग की तीव्रता में आप अशुभ भाव कर रहे हो, यह सहजभाव नहीं है, यह राग भाव है। भूख लग रही है, भोजन कर रहे हो, सहजभाव नहीं है, राग इच्छापूर्वक आप इच्छित द्रव्य को सेवन कर रहे हो, यह राग की पूर्ति है, असातावेदनीय कर्म की उदीरणा है। पानी गर्म हो गया, सहज हो गया न? नहीं, सहज भाव नहीं है, यह सोपाधिक भाव है । समयसार का सहजभाव वह स्वरूपभाव है, और स्वरूपभाव का प्रयोजन न समझ करके, सहजभाव को लेकर, इन रागियों ने क्या किया, जो मन में आया, उसे कह दिया सहजभाव । एक गहरी बात बताऊँ आपको। आपने एक ऐसे जीव को जाना, और समझा है, जिसकी दाढ़ी आ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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