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समय देशना - हिन्दी
१०२ ज्ञान-चारित्र किसमें होता है ? उसमें आत्मा है क्या ?
परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं ।
तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो ||प्र.सा.|| स्फटिक पीली है, सफेद है या कि नीली है ? स्फटिक.स्फटिक है । जैसा वर्ण सामने आ जाये, झलकती वैसी है। जब लाल पुष्प आयेगा, तो स्फटिक लाल दिखेगी। जब मिथ्यात्व भाव तेरे अन्दर आयेगा इस आत्मा पर, तो आत्मा मिथ्यात्व रूप ही होगी और जब आत्मा में सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र होगा, तो आत्मा सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र भूत होवेगी। गाथा तो सही अर्थ कर रही है। समयसार की महान गाथाएँ सामान्य लोगों के द्वारा अर्थ करने योग्य नहीं बची। वे गाथा स्पष्ट कह रही हैं कि जो व्यवहार से सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को जानता है, चौदह पूर्व व ग्यारह अंग को जो आत्मा जान रही है, ये आत्मा श्रुतकेवली है। परन्तु जब ये जानेगी, तब वह ज्ञान किसमें होगा ? आत्मा में। उस समय आत्मा श्रुतकेवली है। जब तक द्रव्यश्रुत का ज्ञान नहीं है, तब तक आत्मा श्रुतकेवली नहीं है । श्रुतकेवली गृहस्थ नहीं होते है । श्रुत हो भी जाये, पर श्रुतकेवली संज्ञा निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण किये बिना नहीं है। सर्वार्थसिद्धि का जीव द्वादशांग को जानता है, पर आपने किसी ग्रंथ में नहीं सुना होगा कि सर्वार्थसिद्धि का देव श्रुतकेवली होता है। ध्यान रखना, 'केवली संज्ञा निर्ग्रन्थ को ही प्रगट होती है, गृहस्थों को नहीं दी जाती । गाथाओं का अर्थ एक से नहीं निकलता। इन दोनों गाथाओं का अर्थ जिसको भी निकालना हो, प्रथम गाथा जो लिखी उस गाथा के संदर्भ में इसका अर्थ निकालो। इसलिए ज्ञान ही आत्मा है, निश्चयनय से निज आत्मा ही श्रुतकेवली है। इस प्रकार समझना। | भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥
gaa तत्त्वज्ञान विश्रुत को श्रुति प्रदान करता है, परभावों से शून्य निजभावों की ओर प्रेरित करता है। जहाँ किंचित भी पर में राग है, वहाँ स्वभाव का भान लेशमात्र भी नहीं है। वीतरागधर्म भिन्न भाव है, शांति का मार्ग है, निज की धारा में निमग्न होने का मार्ग है ये ध्रुव सत्य स्वीकारना । प्रपंचों में वंचना तो है, प्रपंचना की है, पर बचना नहीं है । बचने का मार्ग प्रपंचातीत है, लौकिकता से शून्य है । लोकाचार मोक्षमार्ग नहीं है । मोक्षमार्ग लोकोत्तराचार मात्र है, क्योंकि शून्य की ओर नहीं जाता है, अशून्य में विराजमान करता है, उसका नाम समयसार है । परभावों से निजभावों को शून्यत्व में ले जायें। परभावों से निजभावों को भिन्न करना, ये परभावों से शून्य दशा है। और निज चैतन्य भाव में लवलीन होना, ये अशून्य दशा है। शून्य का अर्थ जड़त्व नहीं, शून्य का अर्थ चैतन्यसत्ता में लीन हो जाना है। लेकिन जिसने जड़ को ही सर्वस्व मान लिया, उसके पास समय कहाँ है, कि शून्य से अशून्य में लीन हो जावे अहो ! विश्वास मानकर चलना, समय देना पड़ेगा । क्यों, आयु के क्षण कहाँ निकले हैं ? प्रभु के चरणों में भी तो तू बैठा था, पर दृष्टि में निहार रहा था, कि यहाँ से लाभ क्या होने वाला है। हे ज्ञानी ! तू भगवान् की भक्ति का भी आनंद नहीं ले सका। ध्यान देना, भक्त भगवान् के चरणों में भगवान् की भक्ति की इच्छा लेकर आया है, पर भगवान् बनने की भावना कर बैठा, वहीं तूने भगवान् की भक्ति में अन्तराल डाला । क्योंकि एकसाथ दो उपयोग नहीं होते । भक्ति में शून्यवत् होना चाहिए था, तो अशून्य में शून्य चला आता । पर तूने भगवान् के चरणों में आकर व्यापार किया है, कि मुझे मोक्ष मिल जाये । हे ज्ञानी ! मोक्ष तो तुझे ध्रुव करने वाला है, एक क्षण के इस भाव ने भगवान् व तेरे बीच में अंतर किया है। जब मोक्ष की भावना करने से भक्ति में अंतर पड़ गया, तो भगवान् की भक्ति करते
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