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________________ ६३ समय देशना - हिन्दी कुन्द-कुन्द आम्नाय बोलते हैं, वह कुन्द-कुन्द स्वामी ने नहीं बनाई है, वह तो आप उनकी भक्ति में बोल रहे हो। किसी भी पंथ का गृहस्थ हो, साधु हो, वे सभी कुन्द-कुन्द आम्नाय बोलते हैं। यदि कुन्दकुन्द स्वामी का अलग से पंथ होता, तो बताओ ऐसी भी आज कोई आम्नाय है, जो कुन्द-कुन्द की आम्नाय को नहीं मानते हैं। सभी मानते है न। इसका मतलब ही है कि कुन्द-कुन्द का नाम लेना सभी पसंद करते हैं। लेकिन आचार्य कुन्द-कुन्द स्वामी ने अपने नाम की कोई भी आम्नाय स्वीकार नहीं की। क्यों? उनको मालूम था कि हमारे जिनशासन में मात्र एक आम्नाय है। उसका नाम है तीर्थंकर आम्नाय । आज लोगों ने जाति-जाति की आम्नाय प्रारंभ कर दी है। ये सब व्यर्थ की बातें हैं । आम्नाय का मतलब होता है परंपरा । जिन शासन में श्रमण संस्कृति में यदि किसी की परम्परा स्वीकारता है तो मात्र तीर्थंकर की स्वीकारता है। कल कोई हो गया, परसों कोई हो गया, तो हम कितने मंदिर बनायेंगे? मालूम चला कि चौबीस भगवान् गौण हो गये, आचार्य और साधु के नाम के मंदिर हो जायेंगे, जैसा महाराष्ट्र में है, अन्य धर्म में । भट्टारकों ने तो शुद्ध दिगम्बर धर्म की बात की है। उन लोगों ने अपने आपको भगवान् नहीं कहा, न आम्नाय कहीं। उन्होंने तो तीर्थंकर परम्परा मात्र का ही पोषण किया। परन्तु मैं अन्यधर्म की बात कर रहा हूँ। वहाँ राम, कृष्ण, जानकी के मंदिर कम हैं, बाबाओं के ज्यादा हैं वैदिक धर्म में। महाराष्ट्र में जैन लोग हैं, वे भी भगवान् की पूजा करते कम मिलेंगे, देवीदेवताओं की पूजा करते ज्यादा मिलेंगे। कारण क्या है ? जहाँ वस्तुस्वरूप का भान समाप्त हो गया, वहाँ जगत् के प्रपंच प्रारंभ हो गये । हमारे वीतराग आचार्यों ने अपने नाम पर सम्प्रदाय नहीं बनाये और बनाने का विचार भी नहीं करना। किसकी परम्परा में हैं आप? वर्द्धमान महावीर की। जितने भी साधु हैं, वे महावीर की परम्परा में हैं। ये श्रमण परम्परा नहीं है, ये श्रमण संस्कृति है। आचार्य कुन्द-कुन्द जो जिस भाषा का भाषी है, उसको उस भाषा में कह रहे हैं। उद्देश्य उस भाषा को समझाने का नहीं है हमारा, उद्देश्य भावों को समझाना है। अज्ञानी जीव भाषा समझने में भव व्यतीत कर रहे हैं, पर ज्ञानी जीव भाषा के माध्यम से भावों को समझ रहे हैं। दो भाषा आपके पास हैं, निश्चय और व्यवहार, निश्चयनय की भाषा अभेदरूप है, व्यवहारनय की भाषा भेदरूप है। पर दोनों भाषायें निजभाव नहीं हैं, दोनों भाषायें परभाव ही हैं। उभय भाषा से शून्य चिद्रवरूप है, वह मेरा निजस्वभाव है। आचार्य जयसेन स्वामी की टीका (आठवीं गाथा की) देखें । शुद्ध निश्चयनय से जीव के दर्शन, ज्ञान, चारित्र नहीं होते हैं। तो फिर आपको परमार्थ का ही कथन करना चाहिए, व्यवहार का कथन नहीं करना चाहिए इसको ध्यान से समझना । जितने प्रश्न आपके मन में आते हैं, सबके उत्तर प । आपके मन में आते हैं, सबके उत्तर पहले से ही लिख दिये। निश्चय-निश्चय चिल्लानेवाला भी चलता व्यवहार से ही है। पीता पानी ही है, खाता रोटी ही है, पर चिल्लाता निश्चय-निश्चय है । उससे पूछना- रोटी निश्चय से बनाई, कि व्यवहार से बनाई, और फिर निश्चय से खायेगा कि व्यवहार से खायेगा? और खानेवाला कौन है? निश्चय है, कि व्यवहार है? व्यवहार नहीं, निश्चय नहीं। आत्मा है, कि नहीं, निर्णय कीजिए? है। निश्चय से , कि व्यवहार से? आत्मा है, तो आत्मा संसार में जी रही, कि नहीं? किससे? निश्चय से, कि व्यवहार से? दोनों से । जो रोटी के टुकड़े को खा रहा है, वह शरीर ने खाया है, कि जीव ने खाया है? हे ज्ञानी ! यदि पुद्गल (शरीर) खाता है, तो मुर्दे को खाना चाहिए, और शुद्ध जीव खाता है, तो सिद्ध भगवान को खाना चाहिए, इसलिए आगम को व्यवस्थित बोलिए। जीव की विभावदशा, पुद्गल की विभावदशा, इनका संयोगीभाव, ये दोनों क्षायोपशमिकभाव, इन दोनों के माध्यम से शरीर खाते दिखाई देता है, पर स्वाद शरीर नहीं लेता है । रसभोक्ता, भोक्तृत्वभाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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