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________________ समय देशना - हिन्दी ६१ इतनी जल्दी नाक नहीं फूटती, मौसम की गर्मी के साथ अन्दर की गर्मी साथ हो जाये, तो नाक फूटती है। ध्यान की गर्मी से वे यहाँ नहीं हैं । वे हैं, इसलिए ध्यान कर रहा हूँ । लक्ष्य की प्राप्ति हो जाये, इसलिए अलक्ष्य का ध्यान कर रहा हूँ। जब मैं परभाव से शुद्ध होकर ध्यान करूँगा, तो सबको गौण करके ध्यान करूँगा । फिर मैं ध्येय होऊँगा, मैं ही ध्याता होऊँगा, मैं ही ध्यान होऊँगा, फिर कोई नहीं होऊँगा । पर ध्रुव सत्य है, कि जब तक पंचपरमगुरु को नहीं ध्याओगे, तब तक निज शुद्धात्म गुरु के पास नहीं पहुँच पाओगे । गेट पर जाना पड़ता है, परन्तु गैर के लिए नहीं, मंदिर में विराजे भगवान् के लिए । वह प्रमाण दो प्रकार का होता है अभ्यस्तदशा स्वतः, अनभ्यस्तदशा में परत: । अभ्यस्तदशा में पूछना नहीं पड़ता कि बोर्डिंग मंदिर कहाँ है, पर पहुँच जाते हैं। परन्तु जो बाहर से आता है, वह पूछ-पूछ कर आता है। ऐसे ही हम खड़े मोक्ष के द्वार पर हैं, लेकिन अपरिचित है, तो पूछ रहे कि क्या है । पर न्यायशास्त्र का सूत्र याद रखना । 'तत्प्रामाण्यं स्वत: परतश्च ।' परीक्षामुख सूत्र ||१ / १३ ॥ अर्थात वह प्रमाण दो प्रकार का होता है, स्वतः और परतः विषयभेद से आत्मा के तीन भेद बनते हैं, परन्तु ज्ञायकभाव से भेद नहीं है । मिथ्यात्वभाव से बहिरात्मा, कर्म सहित होने से अन्तरात्मा, सकल परमात्मा-निकल परमात्मा । पर तीनों ज्ञायकस्वरूप भगवान् - आत्मा हैं । सत्य बता रहा हूँ, योगीश्वर कुछ नहीं करते । नाना प्रपंचों के बीच में भी भोजन कर लेते हैं। भोजन का समय गौण कर दो एक क्षण आपको घर-गृहस्थी के कार्यों से फुरसत है नहीं, फिर भी समय निकालता कहाँ से है ? ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥ जह णवि सक्कमणजो अणजभासं विणा उ गाहेउं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसकं ॥ स.सा.।। ¶¶¶ ध्रुव एकत्व - विभक्त चिन्मय चेतन स्वरूप है, उसको सम्हालने के लिए प्रज्ञा काम करेगी। पर उसमें लीन होने के लिए अभेद दशा ही, काम में आयेगी। शब्दजाल - स्वरूप नहीं है; जो स्वरूप है, वह शब्द जाल शून्य है । शब्दब्रह्म आत्मब्रह्म का साधन तो हो सकता है, पर साध्यभूत नहीं हो सकता है। जगत् के लोगों ने उस शब्द को लेकर जगत् के विपर्यास में पड़ना प्रारंभ किया, ध्रुव सत्य यह है। जिस दिन ब्रह्म का बोध हो जायेगा, उस दिन शब्दातीत व पक्षातीत हो जायेगा। फिर झलकता नहीं है कि मैं कौन, मेरा कौन है ? अहमिदं ममेदं ? भाव जब तक तेरे अन्तःकरण में निवास कर रहा है, तब-तक 'अहमिक्को' भाव नहीं है । शक्ति चाहिए। तू अहमेदं स्वभावी है, तू ममेदं स्वभावी है । यह मेरे हैं, इनका मैं हूँ, यह अहमिदं - ममेदं भाव है । इन दोनों से भिन्न 'अहमिक्को', मैं एक स्वतंत्र द्रव्य हूँ, ये मेरा स्वभाव है । यथार्थ मानना, सम्बन्ध कभी स्वभाव को प्राप्त कराते नहीं हैं । सम्बन्ध भिन्न में ही होता है । सम्बन्ध अभिन्न में होता नहीं है । शब्द संबंध भी परमार्थ के समझने के लिए है । शब्द से सम्बन्ध रखना, परन्तु शब्द की प्राप्ति के लिए परमार्थ को मत खो देना । समयसार ग्रन्थ अध्यात्म की ऐसी अलौकिक रचना है जो जीव को अध्यात्म के रस भीतर तक डुबोती है। लेकिन, ज्ञानियो ! ध्यान दो, इस ग्रंथ की ग्रंथि भी तुझे निर्ग्रन्थ नहीं होने देगी। इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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