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________________ समय देशना - हिन्दी ८५ नहीं है। ज्ञायकभाव ही तेरा स्वभाव है। शब्द भी भिन्न है, बातें भी भिन्न हैं। जैसा चेहरा व मन यहाँ विराजता है, ऐसा चौबीस घंटे हो जाये, तो तुझे कोई शक्ति घर में रोक नहीं पावे । पर क्या करूँ ? यहाँ एक-दो घंटे देते हो, घर में पूरा समय देते हो। जिसके शक्ति अंश अधिक होते हैं, वे उसमें परिणत कर लेते हैं। रागियों के बीच आपको चौबीस घंटे रहना है, मंदिर या गुरु के पास तो थोड़े से समय के लिये आते हो । ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्तदंसणं णाणं । णविणाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ॥७॥ समयसार || अहो ज्ञानियो ! अध्यात्म का विषय सुनने में सरल है, प्राप्ति में कठिन है । परन्तु सुनते-सुनते तत्त्व का निर्णय यदि हो गया आपका, तो विश्वास रखना, किसी-न-किसी पर्याय में तत्व बोध हो ही जायेगा । मुनि बनना कठिन नहीं है, मुनिपने का निर्णय करना कठिन है। कठिन है तत्त्व का निर्णय करना तत्त्व का निर्णय करने से एक बार में मोक्ष हो जायेगा, पर तत्त्वनिर्णय के अभाव में कोटि-कोटि बार मुनि बनेगा तब भी मोक्ष नहीं मिलेगा। और विश्वास रखना - अभव्य के सिवाय कोटि-कोटि बार कोई मुनि बन नहीं सकता है। मुनिलिंग तो धारण कर सकता है सच्चे अर्थ में मुनित्व नहीं। एक बार भावलिंगी मुनि बन गया तो बत्तीस भव से आगे जाता नहीं, और समाधि सहित मरण कर लिया जिस योगी ने तो सात-आठ भव के अंदर नियम से मोक्ष जाता है, उसे संसार में कोई रोकता नहीं। इसलिए जो भावव्रती है, वही व्रती है। अहो ! तन के त्यागियो ! मन से पूछो कि त्याग कितना किया है ? जितना मन का त्याग है, वही त्याग है । तन का त्याग रागभाव है। भटक नहीं जाना । त्याग तो कर लिया, पर त्याग का त्याग नहीं किया । तो फिर त्यागी कैसे ? कह रहा था कि मैं कोटि-कोटि पर पैर मारकर आया हूँ। अरे ! पैर धीमा लगा था, अब तक छूटा नहीं, इसलिए कह रहा था कि मैं छोटा-मोटा नहीं हूँ, सब छोड़कर आया हूँ। छूटा नहीं है । छूट गया होता, तो कोटि-कोटि शब्द नहीं आया होतो - ये भी कषायभाव है। ये चारित्रभाव नहीं है, प्रशंसा के भाव हैं, संसार का कारण है। 'मैं इतना ज्ञानी था।' केवली तो नहीं थे । छोड़ दो, क्षयोपशम भाव काम नहीं आयेगा | डिग्रियाँ काम में नहीं आयेंगी, सब छोड़ना पड़ेंगी। परिणाम की विशुद्धि और चारित्र की निर्मलता काम में आनेवाली है, बाकी कुछ काम में नहीं आने वाला। वे डिग्रियों को प्राप्त करके साधु बने हैं। अरे ! ये डिग्रियाँ कभी अहं भाव को प्रगट कर सकती हैं। हमें वह डिग्री चाहिए जिससे चारित्र में दोष न लगे, और गुरु के चरण न छूटें । कोटि-कोटि डिग्री काम में नहीं आयेगी, इतना ध्यान रखना। जब तक सरागदशा है तन गुरु से भले दूर रहे आये, पर तो भी मन गुरु से दूर न हो है। जब तुम वीतरागी हो जाओगे, तब न तन की जरूरत है, न मन की जरूरत है। दिखता है आपको कि काजल आँख लगाते हो, परन्तु वह दिखता नहीं है। आँख को दिखे या न दिखे, पर काजल के बिना अच्छा दिखता नहीं है। ऐसे ही आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी अध्यात्म टीका लिख रहे हैं। और क्या कह रहे हैं ? गुरु प्रसाद । जैसे नयनों में लगा काजल स्वयं आँख को दिखाई नहीं देता, पर काजल के बिना दिखाई नहीं देता, ऐसे ही गुरु का प्रसाद दिखाई नहीं देता, पर गुरु प्रसाद के बिना मोक्षमार्ग दिखाई नहीं देता । इतना सीख लेना। ये दो नयनों का काजल है । यहाँ समय मालूम नहीं पड़ता, कि कब निकल गया । इसी प्रकार, मुझे विश्वास है कि तैतीस सागर पर्यन्त समय तत्त्वचर्चा में सर्वार्थसिद्धि के देवों के ऐसे ही निकलते होंगे। व्यवहारनय से ज्ञान-दर्शन- चारित्र कहते हैं । सद्भूत व्यवहार है। निश्चय से न ज्ञान है, न दर्शन है, न चारित्र है। मैं तो ज्ञायकस्वभावी हूँ । प्रभु चिद्रूप है। भाव है तो ज्ञायकभाव है, शेष सब परभाव है, परे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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