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________________ कय-पावो वि मस्सो • मनुष्य । आलोइअ आलोचना करके निंदिअ गुरुसगासे आलोअणा बहुविहा न य संभरिओ (इसी बात को विशेष रूप से कहते हैं) कय - पावो वि मणुस्सो, आलोइअ निंदिअ गुरु- सगासे । होइ अइरेग-लहुओ, ओहरिअ भरुत्व भारवहो ||40|| - शब्दार्थ - कृतपाप, पाप करने वाला। - भी । - - निंदा करके । - - गुरु के पास । - आलोचना । अनेक प्रकार की । - नहीं । • और । - याद आई हो। - होइ अइरेग-लहुओ - अत्यंत हल्का । ओहरिअ भरुव्व भारहो - होता है, हो जाता है। भार के उतर जाने पर । • जिस प्रकार से । • भारवाहक, कुली। (विस्मरण हुए अतिचारों की आलोचना ) आलोअणा बहुविहा, न य संभरिआ पडिक्कमण-काले । मूलगुण- उत्तरगुणे, तं निंदे तं च गरिहामि ||42 | शब्दार्थ - भावार्थ: जिस प्रकार बोझा उतर जाने पर भारवाहक के सिर पर भार कम हो जाता है, उसी प्रकार गुरु के सामने पाप की आलोचना तथा आत्मा की साक्षी से निन्दा करने पर सुश्रावक के पाप अत्यन्त हल्के हो जाते हैं । । 40।। 77 पडिक्कमण काले प्रतिक्रमण के समय । - मूलगुण । मूलगुण उत्तर गुणे - - उत्तर गुण के विषय में । तं निंदे - उसकी मैं निंदा करता हूँ। तंच गरिहामि - तथा उसकी मैं गर्हा करता हूँ । भावार्थ : मूलगुण (पांच अणुव्रत) और उत्तरगुण (तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत ) के विषय में लगे हुए अतिचारों की आलोचना बहुत प्रकार की है, तथापि उन आलोचनाओं में से जो कोई आलोचना प्रतिक्रमण करते समय याद न आई हो उसकी मैं आत्म साक्षी से निन्दा करता हूँ और गुरु की साक्षी से गर्हा करता हूँ ||421
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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