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________________ सम्मद्दिट्ठी - सम्यग्दृष्टि जीवो इवि हु पावं समायरइ किंचि - जीव, आत्मा । यद्यपि। - पि वंदितु सूत्र गाथा 36 से 50 तक सम्मद्दिट्ठी जीवो, जइ वि हु पावं समायरइ किंचि । अप्पो सि होइ बंधो, जेण न सिद्धंधसं कुणइ ||36|| शब्दार्थ अवश्य, करना पड़ता है। - - पाप को, पापमय प्रवृत्ति को । • करता है, आचरता है, आरम्भ करता है । - कुछ । (दृष्टांत कहते हैं) तंपि हु पडिक्कमणं, सप्परिआवं सउत्तरगुणं च । खिप्पं उवसामेई, वाहि व्व सुसिक्खिओ विज्जो | | 37 || शब्दार्थ • उसको, उस अल्प पापबंध को । • भी। - - भावार्थ : सम्यग्दृष्टि जीव (गृहस्थ श्रावक) को यद्यपि (प्रतिक्रमण करने के अनन्तर भी) अपना निर्वाह चलाने के लिये कुछ पाप व्यापार अवश्य करना पड़ता है तो भी उसको कर्मबन्ध अल्प होता है क्योंकि वह निर्दयता पूर्वक पाप व्यापार नहीं तं पिहु सपडिक्कमणं करता ||36 || अवश्य । सपडिक्कमणं - प्रतिक्रमण द्वारा । सप्पर आवं पश्चाताप द्वारा । सउत्तरं गुणं - प्रायश्चित रूप उत्तर गुण द्वारा । सुसिक्खिओ विज्जो अप्पो सि होइ बंधो जेण न निद्धंधसं कुणइ च खिप्पं उवसामेई वाहि व्व For Perso 75 - 00000 Mate Use Only अल्प, थोड़ा। - उसको । - होता है। - क्योंकि । - नहीं । - निदर्यता पूर्वक । - करता है। बन्ध कर्मबन्ध। - - और । जल्दी | - उपशांत करता है। - व्याधि । - जैसे । - भावार्थ :- जिस प्रकार सुशिक्षित अनुभवी (कुशल) वैद्य व्याधि को शीघ्र शांत कर देता है वैसे ही सम्यक्त्वधारी सुश्रावक उस अल्पकर्म बन्ध को भी प्रतिक्रमण, पश्चाताप और प्रायश्चित सुशिक्षित । - वैद्य । www.jainelibrary.org
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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