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परभ
के क्षयोपशम से आत्मा का विकास तथा आत्मगुणों की प्राप्ति नहीं होती। आत्मिक विकास के लिए मोहनीय कर्म के क्षयोपशम की आवश्यकता होती है। क्योंकि मोहनीय कर्म ही आत्मा को मिथ्यात्व के दल-दल में फंसाता है। जब तक मिथ्यात्व का नाश नहीं होता, तब तक आत्मा सम्यक्त्वी नहीं होती और जब तक दृष्टि सम्यग् और शुद्ध नहीं होती, तब तक आत्मा सारे सूत्र और शास्त्र पढ़ लेने
ज्ञानी ही रहती है। मिथ्यात्वी या अभव्य जीव के ज्ञानावरणीय कर्म का तीव्र क्षयोपशम होने पर ज्ञान गुण बड़े पैमाने पर प्रगट होता है। इससे वह साढे नौ पूर्व तक ज्ञान प्राप्त कर लेता है। परन्तु इससे आगे न वह बढ पाता है न अपनी आत्मा का विकास कर पाता है। इसलिए गुणस्थान का कथन मुख्यतया ज्ञान गुण पर नहीं अपितु मोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम या उपशम आदि पर आधारित है। अत: मोह और योग के निमित्त से होनेवाले श्रद्धा और चारित्र गुणों की अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। आगमों में इसे जीवस्थान कहते हैं। गुणस्थानों के नाम
1. मिथ्यात्व, 2. सास्वादन (सासादन), 3. मिश्र (सम्यग् मिथ्यादृष्टि), 4. अविरत सम्यग्दृष्टि, 5. देशविरत, 6. प्रमत्तसंयत, 7. अप्रमत्तसंयत, 8. निवृत्तिकरण (अपूर्वकरण), 9. अनिवृत्ति करण, 10. सूक्ष्मसंपराय, 11. उपशांतमोह, 12. क्षीणमोह, 13. सयोगी केवली और 14. अयोगी केवली 1. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान :
मिथ्या - विपरीत, उल्टी दृष्टि - समझ, श्रद्धा, प्रतिपत्ति
मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जिस जीव की समझ, श्रद्धा या मान्यता विपरीत हो, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है। उस जीव का जो गुणस्थानक होतो है वह मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक कहलाता
है। इस गुणस्थान में दर्शनमोह और चारित्रमोह-दोनों की मिथ्या दृष्टि
प्रबलता होती है। जिससे आत्मा यथार्थज्ञान और सत्यानुभूति से अनादि अज्ञानांधकार
वंचित रहती है। यर्थाथ बोध के अभाव के कारण वह पर में स्व की बुद्धि रखता है, पर पदार्थो से उसे सुख की कामना रहती है। अथवा जिस वस्तु का जैसा स्वरूप है उसे उस स्वरूप में न मानकर अन्य स्वरूप में मानता है। जैसे धतूरे के बीज को खानेवाला मनुष्य सफेद वस्तु को भी पीली देखता है वैसे ही मिथ्यात्वी मनुष्य की दृष्टि भी विपरीत हो जाती है अर्थात् कुदेवकुगुरु और कुधर्म को सुदेव-सुगुरु सुधर्म के रूप में मानता, जानता और पूजता है। उसे आत्मा तथा अन्य, चैतन्य व जड का विवेकज्ञान ही नहीं होता है। इस प्रकार के मिथ्यादृष्टि जीव के