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________________ “आहार, शरीर, उपधि पच्चभ्रू पाप अठार। मरण पाऊँ तो वोसिरे, जीऊँ तो आगार।।" अर्थात् मैं आहार, शरीर, उपधि यानि समस्त वस्तुओं का त्याग करके अठारह पाप-स्थान का त्याग करता हूँ। यदि सुबह तक जीवन रहा तो आहारादि सब पुनः ग्रहण करूँगा। ___ यह अनुभव सिद्ध बात है कि सोते समय मानव की चेतना शक्ति भी सो जाती है, शरीर भी निश्चेष्ट हो जाता है तो उस समय व्यक्ति होश में नहीं रहता। यह “निद्रा" एक प्रकार से अल्पकालिक मृत्यु जैसे ही है। उस समय साधक अपनी सुरक्षा का प्रयास नहीं कर सकता। इसलिए जैनाचार्यों ने सागारी संथारा द्वारा जीवन और मरण से सावधान रहने का निर्देश दिया ताकि वह जीने के मोह से मृत्यु को न भूल जाए बल्कि मौत को भी प्रतिक्षण याद रखे। 2. सामान्य या यावज्जीवन संथारा :- जब स्वाभाविक जरावस्था अथवा असाध्य रोगों के कारण पुनः स्वस्थ होकर जीवित रहने की समस्त आशाएँ समाप्त हो जाए तब यावज्जीवन तक जो देहासक्ति एवं शरीर पोषण के प्रयत्नों का त्याग किया जाता है और जो मृत्यु पर पूर्ण होता है वह सामान्य संथारा है। सामान्य संथारा ग्रहण करने के लिए जैन आगमों में निम्न स्थितियाँ आवश्यक मानी गयी है। 1. जब शरीर की सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्यो के सम्पादन करने में अयोग्य हो गयी हो, 2. जब शरीर का मांस एवं शोणित सूख जाने से शरीर अस्थिपंजर मात्र रह गया हो, 3. पचन-पाचन, आहार-निहार आदि शारीरिक क्रियाएँ शिथिल हो गयी हों और इनके कारण साधना और संयम का परिपालन सम्यक् रीति से होना सम्भव नहीं हो, इस प्रकार मृत्यु का जीवन की देहरी पर उपस्थित हो जाने पर ही सामान्य संथारा ग्रहण किया जा सकता है। सामान्य संथारा तीन प्रकार का होता है : ____a) भत्तप्रत्याख्यान :- यावज्जीवन के लिए तीन या चार प्रकार के आहार का त्यागपूर्वक जो मरण होता है, उसे भत्त प्रत्याख्यान मरण कहते है। बैठकर कायोत्सगी ___b) इंगित मरण या इंगिनीमरण :प्रतिनियत स्थान पर अनशनपूर्वक मरण को इंगिनीमरण कहते हैं। इस मरण में साधक अपने अभिप्राय से अपनी सेवा-शुश्रुषा करता है, किन्तु क्रोध शरीर की सुन्दरता सम्पत्ति, यौवन, आदि सबकुछ अस्थिर एवं नाशवान है। मुझे इससे ममत्व हटाकर अपनी आत्मा का उद्धार करना। ফরগাষ্ট एकान्त कमरेत्म चा कपाटा चारों प्रकार के आहार व शरीर के ममत्व का त्याग करके संथारा लेता । 20Solah R 56 s aksksee
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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