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________________ जैन दर्शन में ज्ञान का स्वरूप जैन दर्शन में ज्ञान शब्द की तीन व्युत्पत्तियाँ की गई है - 1. णाती णाणं - जानना ज्ञान है 2. णज्जइ अणेणेति णाणं - जिससे जाना जाता है वह ज्ञान है। 3. णज्जति एतम्हि त्तिणाणं - जिसमें जाना जाता है, वह ज्ञान है। जैन दर्शन में ज्ञान को आत्मा का स्वरूप माना गया है। जो जानता है वह आत्मा है और जो आत्मा है वही जानता है अर्थात् ज्ञान आत्मा का ऐसा धर्म है जो आत्मा को अनात्मा से अलग करता है। आत्मा अपने सहज स्वरूप में अनन्त ज्ञान दर्शन का स्वामी है, अनन्त सुख का निधान है और अनन्त शक्ति से सम्पन्न है। किन्तु छदमस्थ अवस्था में ये गुण दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। ज्ञान जीव का विशेषण नहीं अपितु स्वरूप है। अत: जीव में यह सामर्थ्य है कि वह संसार के सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों का साक्षात् और यथार्थ रूप में जान सकता है। किन्तु ज्ञानावरणीय कर्मो के कारण उसे आंशिक ज्ञान ही होता है। कर्म रूपी मेघ आत्मरूपी सूर्य को आवृत्त कर देते हैं, पर उनमें वह ताकत नहीं है कि वे जीव ज्ञान रूप स्वभाव को पूर्णत: नष्ट कर सके। जीव के अक्षर के अनन्तवें भाग जितना ज्ञान हमेशा उद्घाटित रहता है। यदि ऐसा न हो तो जीव फिर अजीव बन जायेगा। ज्ञान स्वभावत: स्व पर प्रकाशक है। जिस प्रकार दीपक अपने आपको प्रकाशित करता हुआ पर पदार्थो को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान अपने आपको जानता हुआ ही पर पदार्थों को भी जानता है। दीपक को देखने के लिए अन्य दीपक की आवश्यकता: ज्ञान को जानने के लिए अन्य किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती। ज्ञान दीपक के समान स्वऔर पर का प्रकाशक माना गया है। सारांश यह है कि आत्मा का स्वरूप समझने के लिए ज्ञान का स्वरूप समझना अनिवार्य है। इसलिए ज्ञान का इतना महत्व है। ज्ञान की परिभाषा 'ज्ञायते - परिच्छिद्यते वस्तु अनेनेति ज्ञानम्।' जिसके द्वारा वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जाता है, वह ज्ञान है। स्व-पर को जानने वाला जीव का परिणाम ज्ञान है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम या क्षय से होने वाले तत्त्वार्थ बोध को ज्ञान कहते है। No.sort8P
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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