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शुभाशंसा
भद्रावती 10-3-2013
स्वयं के द्वारा स्वयं का अध्ययन ही स्वाध्याय कहलाता है। बिना स्वाध्याय के जीवन का यथार्थ निरीक्षण, परीक्षण, समीक्षण एवं शुद्धीकरण असम्भव है। स्वाध्याय के अप्रतिम महत्व को देखते हुए ही शास्त्रों में स्वाध्याय को सर्वोत्कृष्ट तप कहा गया है - स्वाध्याय परमं तपः।
साधना-आराधना की उच्च भूमिका में स्वाध्याय का स्वरूप अन्तर्मुखी चिन्तन-मनन-मंथन रह जाता है। किंतु प्राथमिक भूमिका में स्वाध्याय का अर्थ है सद्ग्रन्थों एवं सत्साहित्यों का स्वलक्षी होकर अध्ययन (वांचन) करना है। इससे हमारी विचार-शुद्धि होकर व्यवहार-शुद्धि होती है। अतः पूर्वाचार्यों ने निद्रा, हास्य, विकथा आदि को टालते हुए सदैव स्वाध्यायरत रहने का ही उपदेश दिया है - 'सज्झायम्मि सया रया' |
आज के भौतिकवादी युग में, जहाँ भोग-विलास के साधन सहज उपलब्ध हैं, वहीं ज्ञानसामग्री की प्राप्ति विरल है। विशेषकर वे ज्ञान-सामग्रियाँ जो चित्ताकर्षक हो, की उपलब्धता तो अतिविरल है। ऐसी परिस्थिति में विदूषी श्राविका सुश्री डॉ. निर्मलाजी जैन ने विशिष्ट परिश्रम करके स्वाध्याय हेतु सरल, सरस एवं सुन्दर शैली में छह-छह पुस्तकों की रचना कर एक अनुमोदनीय एवं अनुकरणीय कार्य किया है।
__ आदिनाथ जैन ट्रस्ट के सर्व श्री मोहनजी एवं श्री मनोजजी गोलेच्छा आदि के सक्रिय सहयोग से ये पुस्तकें आज सभी के लिए घर बैठे उपलब्ध है। जैन धर्म एवं दर्शन के जिज्ञासु इन पुस्तकों के माध्यम से जैन पौराणिक कथाओं, इतिहास, तत्त्वज्ञान, आचार-मीमांसा, प्रतिक्रमण सूत्र एवं अर्थ आदि अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। वस्तुतः, वर्तमान युग में यह एक सराहनीय एवं सफल पहल है। "
इन पुस्तकों की एक और विशेषता यह है कि ये क्रमश: गहन एवं तलस्पर्शी होती जाती हैं। प्रस्तुत छठी पुस्तक में जिन नय, निक्षेप, प्रमाण, सप्तभंगी, अनेकान्त, गुणस्थान आदि गूढ विषयों का समावेश किया गया है।, ये विषय सामान्यतया अछूते ही रह जाते हैं। निस्संदेह, इन विषयों के वर्णन से इन पुस्तकों की उपादेयता में और अधिक अभिवृद्ध होगी।
इस सार्थक कदम के लिए कार्य से जुड़े सभी महानुभावों की भूरि-भूरि अनुमादेना।
. मुनि महेन्द्रसागर
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