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पैरों के बीच आगे की ओर चार अंगुल जितना अंतर रखना. पीछे की ओर चार अंगल से कुछ कम करीब तीन अंगुल अंतर रखना तथा दोनों हाथ सीधे लटकते, पंजे जांघ की ओर, दृष्टि नासिका के अग्रभाग या जिनबिंब पर स्थापित करना यह जिनमुद्रा कहलाती है। नवकार या लोगस्स के काउसग्ग में जिनमुद्रा की जाती है। इस तरह की जिन मुद्रा में Centre OfGravity सही बनने से काया की स्थिरता लम्बे समय तक बिना श्रम से स्थिर रह सकती है।
और शरीर शिथिल अवस्था में रह सकता है। काया की स्थिरता मन की स्थिरता का कारण बनती है। 3. मुक्ताशक्ति मुद्रा :- दोनों हाथों को जोडे, दसों उंगलियों को एक दूसरे के सामने
रखें, दोनों हथेलियों का मध्य भाग खोखला रहे और बाहर से हाथ उपर उठा हुआ मोती के सीप के आकार का दिखाई देवें। इस प्रकार की मुद्रा मुक्ताशक्ति मुद्रा कहलाती है। जावंति चेईआई, जावंतकेविसाहू, जयवीयराय (आभवमखंडा तक) ये सूत्र इसी मुद्रा में बोले जाते हैं। सूत्र बोलते समय दोनों हाथ ललाट पर लगाना चाहिए। 10. प्रणिधान त्रिक :- आराधना में मन, वचन, काया के योगों को लयलीन तन्मय, तदाकार बनाना ही प्रणिधान त्रिक कहलाता है।
1. मन का प्रणिधान :- शुरु की गई क्रिया विधि में ही मन को पिरोना, उसके सिवाय किसी भी विचारों का मन में प्रवेश न होने देना मन का प्रणिधान है।
2. वचन का प्रणिधान :- जो सूत्रोच्चार चल रहा हो उसके उच्चारण, पद, संपदा
का पूरा ध्यान रखना वचन प्रणिधान कहलाता है। 3. काया का प्रणिधान :- जिस मुद्रा में क्रिया करनी हो उसी मुद्राओं में काया को तल्लीन रखना, अन्य अप्रशस्त मुद्राएं न करना काया प्रणिधान कहलाता है।
सर्व आराधनाओं का मूल आधार है - प्रणिधान, एकाग्रता, स्थिरता। हृदय के अहोभावपूर्वक क्रिया विधि करने से छोटी सी आराधना भी अनंतगुणा फल देने वाली होती है। यहाँ पर दस त्रिक विधिपूर्ण होती है।
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