SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * सात निन्हव * भगवान महावीर स्वामी के समय में और उनके निर्वाण के पश्चात् भगवान महावीर स्वामी में कुछ सैद्धान्तिक विषयों को लेकर मत भेद उत्पन्न हुआ। इस कारण कुछ साधु भगवान के शासन से अलग हो गये, उनका आगम में निन्हव नाम से उल्लेख किया गया है। उनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है। * जमाली और बहुरतवाद :- भगवान महावीर स्वामी के केवलज्ञान के 14 वर्ष पश्चात् श्रावस्ती में बहुरतवाद की उत्पत्ति हुई। इस मत के संस्थापक जमाली थे। वे कुण्डलपुर के रहनेवाले थे। सांसारिक संबंध के अनुसार वे भगवान महावीर स्वामी के भाणेज व दामाद भी थे। उनकी पत्नि प्रियदर्शना थी। जमाली ने 500 पुरुषों के साथ तथा उनकी पत्नि प्रियदर्शना 1000 महिलाओं के साथ भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेकर जमाली ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। __एक बार जमाली ने प्रभु से स्वतंत्र विहार करने की आज्ञा मांगी। प्रभु मौन रहे, उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। प्रभु की आज्ञा के बिना ही वे 500 मुनियों के साथ विचरण करते हुए श्रावस्ती नगरी पहुँचे । वहाँ संयोग से जमाली के शरीर से तीव्र दाह ज्वर उत्पन्न हआ। उन्होंने श्रमणों को संथारा बिछाने को कहा। श्रमणों ने संथारो बिछाने का काम आरंभ किया। तीव्र दाह ज्वर की वेदना से एक एक पल उन्हें बहुत ही भारी लग रहा था। उन्होंने पूछा संथारा बिछ गया या नहीं ? उत्तर मिला - संथारा बिछ गया। तब वह वेदना से विकल होकर सोने के लिए आए और अर्ध संस्तृत शय्या को देखकर क्रोधित हुए और कहा - भगवान महावीर स्वामी जो चलमान को चलित और क्रियमाण को कृत कहते हैं वह मिथ्या है। मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ संथारा किया जा रहा है, उसे कृत कैसे माना जा सकता है ? उन्होंने इस घटना के आधार पर निर्णय किया क्रियमाण को कत नहीं कहा जा सकता। जो कार्य संपन्न हो चका है उसे ही कत कहा जा सकता है। कार्य की निष्पत्ति अंतिम क्षणों में ही होती है, उसके पूर्व नहीं। इस प्रकार वेदना - विह्वल जमाली मिथ्यात्व के उदय से निन्हव बन गये। कितने ही निर्ग्रन्थ साधु जमाली के कथन से सहमत हुए तो कितने ही निर्ग्रन्थ साधु को उनका कथन उचित नहीं लगा। कुछ स्थविर निर्ग्रन्थों ने जमाली को समझाने का भी प्रयास किया और जब देखा कि जमाली किसी भी स्थिति में अपनी मिथ्या धारणा को बदलने के लिए तैयार नहीं है तो वे जमाली को छोडकर भगवान महावीर स्वामी के शरण में पहुँच गये। जो उनके मत से सहमत हुए वे उनके पास रह गये। जमाली जीवन के अंत तक अपने मत का प्रचार करते रहे। अंत समय में भी मिथ्या आग्रह आलोचना, प्रायश्चित नहीं किया और आयुष्य पूर्ण कर तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव बने। यह पहला निन्हव बहुरतवाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। क्योंकि इसके अनुयायी बहुत समयों में क्रिया को होना मानते हैं। * तिष्यगुप्त और जीव - प्रदेशिकवाद भगवान महावीरस्वामी के कैवल्यज्ञान के 16 वर्ष पश्चात् ऋषभपूर में जीव प्रदेशिकवाद की उत्पत्ति हुई। दूसरे निन्हव तिष्यगुप्त थे | एक बार चौदह पूर्व के ज्ञाता आचार्य वसु अपने शिष्य तिष्यगुप्त मुनि को आत्मप्रवाद पूर्व पढ रहे थे। उसमें भगवान महावीर स्वामी और गौतम का संवाद आया - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy