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________________ साध्वी सुनंदा पृथ्वीभूषण नगर में कनकध्वज राजा की पुत्री का नाम था सुनंदा । राजकुमारी ने यौवन के आंगन में पदार्पण किया। उसका रूप लावण्य और सौंदर्य गजब का था। एक दिन राज भवन के सामने पान की दुकान पर वासुदत्त का चौथा खूबसूरत पुत्र रूपसेन पान खाने आया। इतने में सुनंदा की दृष्टि रूपसेन पर पड़ी। दृष्टि पड़ते ही उसके रोम-रोम में काम की ज्वाला धधक उठी । दासी के द्वारा सुनंदा ने रूपसेन को अपने अभिमुख किया। आंखों आंखों में बात हो गई। सुनंदा ने दासी के द्वारा रूपसेन को कहलाया कि आप कौमुदी महोत्सव के प्रसंग पर राज-महल के पीछे के भाग में पधारना । Jain Education International - कौमुदी महोत्सव के दिन माया-कपट करके सुनंदा ने सिर-दर्द का बहाना बनाया और राज दरबार में स्वयं की दासी के साथ रह गई। राजा-रानी परिवार सहित गांव के बाहर महोत्सव देखने चले गए। कैसी भयंकर है वासना ? जिसके कारण सुनंदा असत्य बोली व उसने माया की। इसी प्रकार रूपसेन भी माया और असत्य का बहाना बना कर घर में ही रह गया। शेष परिवार महोत्सव में चला गया। रूपसेन सुनंदा से मिलने के मनोरथ से घर से निकल पड़ा। आंख के दोष से प्रेरणा पाकर कायिक दोष सेवन की इच्छा से वह सुनंदा के रूप लावण्य और उसके संगम के विचारों को लेकर हर्षित होता हुआ रास्ते से गुजर रहा था। इतने में एक जीर्ण मकान की दीवार उस पर गिर पड़ी। वह उसी के नीचे दब कर मर गया। कैसी भयंकर विचार श्रेणी में मरा? मिला कुछ भी नहीं । परंतु जीव भाव पाप बांध कर राग दशा बढ़ाकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। इधर रात्रि के समय नगर में शून्यता जान कर महाबल नामक जुआरी, चोरी करने के लिए निकल पड़ा। घूमते-घूमते उसने राज भवन के पृष्ठ भाग में लटकती हुई रस्सी की बनी सीढ़ी देखी। राज भवन में प्रवेश का यह सुंदर साधन हैं। यह मानकर वह चढ़ने लगा। सुनंदा की दासी रस्सी की आवाज से विचार करने लगी कि जिस रूपसेन के साथ संकेत किया था, वही आया होगा। इतने में रानी ने स्वयं की दासियों को राजकुमारी के स्वास्थ्य पूछने के लिए भेजा। वे भवन की तरफ आ रही थीं। सुनंदा की दासी ने दीपक बुझा दिया। अन्तेवासी दासी ने स्वास्थ्य पृच्छा के लिए आयी हुई दासियों से कह दिया कि राजकुमारी को अब नींद आ गई है, इस प्रकार झूठ कह कर रानी की दासियों को वापस भेज दिया। रस्सी की सीढ़ी से उपर चढ़कर महाबल राजमहल में प्रवेश करने लगा, तभी दासी ने अंधकार में ही उसका सत्कार किया और स्वागत करते हुए मंद स्वर से कहा " पधारिये रूपसेन !" आवाज मत कीजिये । पधारिये ! पधारिये ! जुआरी विचार करने लगा कि यहां न बोलने में फायदा है। अतः हूँ-हूँ करता हुआ सुनंदा के पास पहुंच 118 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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