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________________ हैं, जिनकी प्रभु ने स्वयं प्रशंसा की है' ऐसा विचार किया। नगरी में प्रवेश करते ही उन्होंने भाग्य योग से ऊँच नीच घरों में भिक्षार्थ घूमते हुए ढंढणमुनि को देखा। उन्होंने हाथी से उतरकर मुनि का वंदन किया। श्रीकृष्ण वासुदेव द्वारा मुनि को वंदन करते हुए देखकर एक धनाढ्य सेठ ने विचार किया - 'यह महात्मा धन्य है, जिसे वासुदेव वंदन करते हैं।' श्रीकृष्ण के चले जाने के बाद विनयपूर्वक सेठ ने मुनि को अपने घर ले जाकर भावपूर्वक केसरिया मोदक से भरे थाल में से उन्हें मोदक वोहराए। मुनि ने प्रभु के पास आकर नमन करके कहा - 'हे भगवंत ! क्या मेरा अंतरायकर्म आज खत्म हो गया है?" प्रभु ने कहा - "अभी उसका अंश विद्यमान है। तुम्हें जो भोजन मिला है, वह लब्धि श्रीकृष्ण की है, क्योंकि उस सेठ ने तुम्हें कृष्ण द्वारा प्रणाम करते हुए देखकर ही निर्दोष आहार प्रदान किया है।" प्रभु ने जब ऐसा कहा तो तुरंत ढंढण अणगार आहार के पात्र की झोली लेकर निर्जीव स्थान पर आहार डालने के लिए चले। अनेक दिनों तक क्षुधा - तृषा को हँसते - हँसते सहन करने वाले इंढण मुनि द्वारिका के बाहर आये। निर्दोष भूमि देखकर वहाँ खडे रहे और झोली में से लड्ड हाथ में लेकर चूरा करने लगे। ढंढण, लड्डुओं का ही चूरा नहीं कर रहे थे बल्कि इस प्रकार वह मानो अपने कर्म - पिंड का ही चूरा और क्षय कर रहे थे। इस प्रकार उनकी विचारधारा आगे - आगे बढ़ती गई । पाँच सौ पाँच सौ मनुष्यों को भोजन के लिए अंतराय डालने वाले मैंने पूर्व भव मे थोडा ही सोचा था कि मैं भोजन का अंतराय कर रहा हूँ ? मेरे द्वारा बाँधा हुआ अंतराय मैं नहीं भोगूंगा तो कौन भोगेगा ? इस प्रकार धीरे धीरे आत्म परिणति में अग्रसर होते नि को अपनी देह के प्रति निर्मोह जाग्रत हुआ और वे शुक्लध्यान में आरूढ हुए। अंतराय कर्म का क्षय करते - करते उन्होंने चारों घाती कर्मों का क्षय किया। इस ओर लड्डुओं का चूरा पूर्ण करके उन्होंने उसे मिट्टी में मिला दिया और दूसरी ओर कर्म का चूरा करके कर्म क्षय करके केवल - लक्ष्मी प्राप्त की। किसी भाग्यशाली को धूल धानिये को कूडा - करकट कैंकते समय स्वर्ण, मोती अथा रत्न प्राप्त हो जाते हैं उसी प्रकार श्री कृष्ण के पुत्र ढंढण मुनि को लड्डुओं का चूरा मट्टी में मिलाते समय मिट्टी धोते समय मोक्षरत्न प्राप्त हुआ। देवों ने देव - दुंदुभि बजाते हुए चारों ओर जय - जयकार का घोष किया। ____ ढंढणमुनि भगवान के पास आये और वे केवली पर्षदा में बैठे । शुद्ध आहार गवेषणा भी केवलज्ञान का धाम कैसे बन जाता है। 92 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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