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________________ जो- जो। कालो - समय। सो - वह। सफलो - सफल। बोधव्वो - जानना चाहिए। सेसो - बाकी का समय। संसार - संसार के। फलहेउ - फल का कारण है। ___ भावार्थ : हे भगवन् ! दशार्णभद्र, सुदर्शन, स्थूलिभद्र और वज्रस्वामी ने घर का त्याग कर (साधु दीक्षा) वास्तव में जीवन सफल किया है - साधु इनके समान होते हैं ||1|| ऐसे साधुओं को वंदन करने से निश्चय ही पापकर्म नष्ट होते हैं, शंका रहित भाव की प्राप्ति होती है, मुनि भगवंतों को शुद्ध आहार आदि देने से निर्जरा होती है, तथा ज्ञान दर्शन चारित्र संबंधी अभिग्रह की प्राप्ति होती है।।2।। घाति कर्म सहित छद्मस्थ मूढ मन वाला यह जीव किंचित मात्र स्मरण कर सकता है (सब नहीं) अतः जो मझे स्मरण है उनकी तथा जो स्मरण नहीं हो रहे हैं वे सब मेरे दुष्कृत (पाप) मिथ्या हो अर्थात् उनके लिए मुझे बहुत पश्चाताप हो रहा है ।।3।। मैंने मन से जो जो अशुभ चिंतन किया हो, वचन से जो जो अशुभ बोला हो तथा काया से जो अशुभ किया हो वह मेरा सब दुष्कृत मिथ्या हो ||4|| सामायिक में, पौषध में अथवा देशावगाशिक में जीव का जो समय व्यतीत होता है वह समय सफल समझना चाहिए। बाकी का काल संसार वृद्धि संबंधी फल का हेतु हैं।।5।। मैंने सामायिक विधि से लिया, विधि से पूर्ण किया, विधि में कोई अविधि हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं देता हूँ। दस मन के, दस वचन के, बारह काया के कुल बत्तीस दोषों में से जो कोई मुझे दोष लगा हो उसके लिए मिच्छामि दुक्कडं देता हूँ। * सामायिक पारने का पाठ * एयस्स नवमस्स सामाइय वयस्स पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा ते आलोउं - मण - दुप्पणिहाणे, वय दुप्पणिहाणे, काय दुप्पणिहाणे, सामाइयस्स, सइ अकरणया, सामाइयस्स अणवट्ठियस्स करणया, तस्स मिच्छामि दुक्कडं। (हरिभद्रीयावश्यक, पृष्ठ 813) सामाइयं सम्मं काएणं न फासियं, न पालियं न तीरियं, न किट्टियं, न सोहियं, न आराहियं, आणाए अणुपालियं, न भवइ तस्स मिच्छामि दुक्कडं। * शब्दार्थ * एयस्स नवमस्स - इस नव में सामाइय-वयस्स - सामायिक व्रत में पंच अइयारा - पाँच अतिचार जाणियव्वा - जानने योग्य है किंतु न समायरियव्वा - आचरण करने योग्य नहीं है तंजहा ते - वे इस प्रकार है उनकी आलोउं - आलोचना करता हूँ मणदुप्पणिहाणे - मन में बुरे विचार उत्पन्न करना वयदुप्पणिहाणे - कठोर या पाप जनक वचन बोलना कायदुप्पणिहाणे - बिना देखे पृथ्वी पर बैठना उठना आदि सामाइयस्स - सामायिक करने का काल सइ अकरणया - भूल जाना सामाइयस्स अणवट्ठियस्स करणया - सामायिक का समय होने से पहले पार लेना या अनवस्थित रुप से सामायिक करना तस्स - उससे होने वाला Arrrrrrrr-186 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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