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________________ अभग्गो - अभंग (भग्न न हो) । कागो - हो मेरा कायोत्सर्ग । अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं - अरिहंत भगवान को नमस्कार करके। न पारेमि- पूर्ण न करूँ । ठाणेणं - स्थिर रखकर । झाणं ध्यान द्वारा । वोसिरामि-पापक्रिया तजता हूँ। (सर्वथा त्याग करता हूँ) भावार्थ : अब मैं कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा करता हूँ, उसमें नीचे लिखे आगारों (अपवादों) के सिवाय दूसरे किसी भी कारण से मैं इस कायोत्सर्ग का भंग नहीं करूंगा। वे आगार हैं- श्वास लेने से, श्वास छोडने से, खांसी आने से, छींक आने से, जम्हाई आने से, डकार आने से, अपान वायु संचार होने से, चक्कर आने से, पित्त विकार के कारण मूर्च्छा आने से, सूक्ष्म अंग संचार होने से, सूक्ष्म रीति से शरीर में कफ तथा वायु का संचार होने से, सूक्ष्म दृष्टि संचार (नेत्र - स्फुरण आदि) होने से (ये तथा इनके सदृश्य अन्य क्रियाएं जो स्वयमेव हुआ करती है और जिनको रोने से अशांति का संभव है ) ( इनके सिवाय अग्नि स्पर्श, शरीर छेदन अथवा सम्मुख होता हुआ पंचेन्द्रिय वध, चोर अथवा राजा के कारण, सर्प दंश के भय से ये कारण उपस्थित होने से जो कार्य व्यापार हो उससे मेरा कायोत्सर्ग भंग न हो, ऐसे ज्ञान तथा सावधानी के साथ खड़ा रहकर वाणी - व्यापार सर्वथा बंद करता हूँ तथा चित्त को ध्यान में जोड़ता हूँ और जब तक णमो अरिहंताणं यह पद बोलकर कायोत्सर्ग पूर्ण न करूँ तब तक अपनी काया का सर्वथा त्याग करता हूँ। * 19 दोषों का त्याग कर कायोत्सर्ग करना चाहिए । वह इस प्रकार है। - अविराहिओ - अखंडित (खंडित न ) । जाव - जहाँ तक, जब तक ताव कायं - तब तक शरीर को, काया को । मोणेणं - मौन रहकर वाणी व्यापार सर्वथा बंद करके । अप्पाणं मेरी (मेरी काया को) । 1. घोडे के भांति एक पैर ऊँचा, टेढा रखना, वह घोटक दोष 2. लता के समान शरीर को हिलाए, वह लता दोष 3. मुख्य स्तंभ को टिकाकर खडा रहे, वह स्तंभादि दोष 4. उपर बीम अथवा रोशनदान हो, उससे सिर टिकाकर रखें वह माल दोष 5. बैलगाडी में जिस प्रकार सोते समय अंगूठे को टिकाकरे बैठा जाता है, उस प्रकार पैर रखे, वह उद्धित दोष 6. जंजीर में जिस प्रकार पैर रखे जाते हैं, उस प्रकार पैरों को चौडाकर रखें, वह निगड दोष 7. नग्न भील के समान गुप्तांग पर हाथ रखें वह शबरी दोष 8. घोडे के चौकडे के समान रजोहरण (चरवले) की कोर आगे रहे, इस प्रकार हाथ रखे, वह खलिण दोष Jain Education international 9. नव विवाहित वधू के समान मस्तक नीचे झुकाए रखे, वह वधू दोष 10. नाभि के ऊपर तथत्त घुटने के नीचे लम्बे वस्त्र रखें, वह लंबोत्तर दोष 11. मच्छर के डंक के भय से, अज्ञानता से अथवा लज्जा से हृदय को स्त्री के समान ढंककर रखें वह स्तन दोष 12. शीतादि के भय से साध्वी के समान दोनों कंधे ढंककर रखे अर्थात् समग्र शरीर शरीर आच्छादित रखें, वह संयति दोष 79 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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