SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 2. क्षमा :- कोई व्यक्ति आक्रोश करे या पत्थर, लाठी आदि से मारे, अपशब्द कहे या अपमान करे तब भी क्षमा रखना । मन में प्रतिकार और प्रतिशोध न रखते हुए उसे समभावपूर्वक सहन करना। जैसे भगवान महावीर के कानों में कीलें ठोके गये और चण्डकौशिक सर्प ने पैरों में डस लिया फिर भी भगवान ने क्षमा - समता की आराधना से अपने मन को समाधिस्थ रखा था। चिलाती पुत्र एवं दृढप्रहारी जब समता साधना के पथ पर दृढतापूर्वक आरुढ हो गए तो नगरजनों ने कायोत्सर्ग के समय मुनियों को बहुत ही यातनाएं दी। तब भी वे क्षमाशील रहें। 3. करुणा :- दुःखी जीवों पर ककारण करुणा करके यथाशक्ति उनके दुःखों को दूर करने का प्रयास करने से सातावेदनीय कर्म का बंध होता है। जैसे मेघकुमार पूर्व जन्म में हाथी था। वन में आग लगने पर जल गया, मरकर उसी जंगल में पुनः हाथी बना। उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। पूर्वजन्म में स्वयं की आग से हुई मौत देखी। कभी ऐसी आग लगे तब अन्य प्राणियों वों को बंधन मुक्त करना की रक्षा हो इस भावना से उसने विशाल भूभाग साफ किया। दावाग्नि से भयभीत पशु - पक्षियों को शरण दी । इतना ही नहीं उस समय में खुजलाने के लिए जब उसने पैर उठाया तब उसके पैर के नीचे खाली जगह देख कर एक खरगोश आकर बैठ गया। उसे बचाने के लिए बीस प्रहर (ढाई दिन) तक उसने अपना पैर ऊँचा उठाए रखा था जिससे उसे असह्य कष्ट हआ था किंतु एक प्राणी पर अनुकम्पा करने के कारण उसने उस कष्ट को शुभभाव पूर्वक सहन किया । फलतः सातावेदनीय कर्म बांधा और आगामी जन्म में वह श्रेणिक राजा का पुत्र मेघकुमार बन भगवान महावीर के पास दीक्षा अंगीकार की। 4. व्रतपालन :- अनेक साधकों ने अणुव्रतों और महाव्रतों का सुचारु रुप से विधिपूर्वक पालन करके सातावेदनीय कर्म बांधा और देवलोक में गये। उदाहरणार्थ :- महाबल राजा ने महाव्रतों का सुचारु रुप से पालन किया, जिसके फलस्वरुप वह सातावेदनीय कर्म बाँधकर देवलोक में गया। 5. शुभयोग :- मन - वचन - काया से शुभ योग पूर्वक ध्यान, धर्म - चिंतन, स्वाध्याय प्रतिलेखनादि धर्म क्रियाओं में प्रवृत्ति करने से सातावेदनीय कर्म का बंध होता है। जैसे वक्कलचीरी को प्रतिलेखन शुभयोगपूर्वक करने से जातिस्मरण ज्ञान हुआ, सातावेदनीय का बंध कर और केवलज्ञान भी प्राप्त किया। ....470NMARA A7000 Decor a te serony www.jainelibrary.org
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy