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________________ प्रतिष्ठापतिकोनिय उपदशादिया वाह! वाह! कितना मन्दा उपदेश है। * दर्शनावरणीय कर्म के बंध के कारण * 1. सम्यग् दृष्टि की निंदा करना अथवा उनके प्रति अकृतज्ञ होना। 2. मिथ्या मान्यताओं तथा मिथ्यात्व पोषक तत्वों का प्रतिपादन करना। 3. शुद्ध दृष्टिकोण की उपलब्धि में बाधक बनना या दूसरों को विपरीत दिशा में ले जाना। मिथ्यात्वी की पर विश्वासादि 4. सम्यग्दृष्टि का समुचित विनय एवं बहुमान नहीं करना। 5. सम्यग्दृष्टि पर द्वेष रखना या उनसे ईर्ष्या करना। 6. सम्यग्दृष्टि के साथ मिथ्याग्रहपूर्वक वाद - विवाद करना। 7. अंधे, बहरे, गूंगे, लुले - लंगडे विकलांग आदि व्यक्तियों का तिरस्कार करना, उनकी यथा शक्ति सेवा - सहायता न करना। क्रोध के वशीभूत होकर किसी की इन्द्रियों का, अंगों का छेदन - भेदन कहना। 8. दूसरों के सुंदर अंगों को देखकर ईर्ष्या करना। 9. इसकी आँखे फूट जाए, यह बहरा - गूंगा हो जाय, इसके हाथ पाँव टूट जाए तो अच्छा, ऐसे दुर्भाव मन में लाना। 10. क्रोध के आवेग में तू अंधा है क्या? तेरी आँखे फूट गई है क्या ? क्या तू बहरा गूंगा - है जो सुनता या बोलता नहीं है ? तू तो पुरा बुद्ध है, पागल है इत्यादि कटु वचन बोलना। 11. दूसरों को भ्रमित करने की भावना से अंधा, गूंगा, बहरा होने का अभिनय करना या नकल उतारना 12. जीभ, आंख आदि इन्द्रियों का दुरुपयोग करना। * दर्शनावरणीय कर्म के निवारण के उपाय * 1. जहाँ अंधे, गूंगे, पागल आदि दिखाई दे, उन्हें सहायता पहुँचाने हेतु तत्पर रहें। ऐसे व्यक्तियों के साथ बोलने में, व्यवहार करने में सावधानी रखें। 3. उनके प्रति दया भाव रखते हुए उन्हें प्रेम या सम्मान देकर हीन भावना से ऊपर उठाने का प्रयास करें। 4. निद्रा आलस्य का परित्याग कर अप्रमत्त बनें। 5. रत्नत्रयी की श्रद्धापूर्वक आराधना या भक्ति करें तथा इन्द्रियों का सदुपयोग करें। 6. धर्म पुरुषार्थ में जागृति और तीव्रता आने पर दर्शनावरणीय कर्म का क्षय होता है। 680 www.jainelibrary.org
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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