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________________ कारण केवल ज्ञान को जानते हुए भी मैं नहीं जानता तथा अरिहंत भगवान द्वारा प्ररुपित तत्व स्वरूप के विपरित प्ररूपणा करना, इस प्रकार के अपलाप को निन्हव कहते हैं। देखो पड़ाक हा Jain Education international 5. केवलज्ञानावरणीय चार प्रकार के घाती कर्म के क्षय होने से सर्व काल के सर्व द्रव्यों का पर्याय सहित जो ज्ञान आत्मा को होता है वह केवलज्ञान है। उसे रोकनेवाला कर्म केवलज्ञानावरणीय कर्म है। * ज्ञानावरणीय कर्म बंध के कारण * प्रदोष ज्ञान, ज्ञानी एवं ज्ञान के साधनों के प्रतिकूल आचरण करना अर्थात ज्ञान के उपकरण पेन, पुस्तक, ग्रंथ अखबार आदि का दुरुपयोग करना, विनयरहित पढना, पुस्तक जमीन पर रखना, उपेक्षापूर्वक पैर लगाना, थुंक लगाना, मस्तिष्क के नीचे रखना, किताबें जलाना तथा मोक्ष के कारण भूत तत्वज्ञान को सुनकर भी उनकी प्रशंसा न करना। * निन्हवः ज्ञान एवं ज्ञानदाता गुरु का नाम छिपाना, ज्ञानी का उपकार स्वीकार न करना, अमुक व्यक्ति के पास पढकर भी मैने इनसे नहीं पढा अथवा अमुक विषय क * मात्सर्यः ज्ञानियों और ज्ञान के साधनों पर द्वेष या अरुचि भाव रखना । * अंतराय : ज्ञानाभ्यास में रुकावट (विघ्न) डालना, ज्ञान के साधनों को छिपा देना, विद्यार्थियों को विद्या, भोजन, वस्त्र, स्थान आदि का लाभ होता हो तो उसे न होने देना, पढाई छुड़ाकर उनसे अन्य काम करवाना आदि। * आसादनः दूसरा कोई ज्ञान दे रहा हो, तत्वज्ञान सिखा रहा हो तो उसे वाणी या संकेत से रोक देना अथवा यह कह देना कि यह तो कुछ सीखा ही नहीं सकता, मंदबुद्धि है, इसे पढाने से व्यर्थ में समय बर्बाद करना है। * उपघात ः विद्वानों के साथ मिथ्याग्रह युक्त व्यर्थ विसंवाद (विवाद) करना अथवा स्वार्थवश सत्य को असत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करना । 1000000००० 65 For Personal & Private Use Only श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से पढने में मन नहीं लगता। www.jainelibrary.org
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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