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________________ * सदाचारी के साथ संगति : संसार में संगमात्र रोग है, दुःख का कारण है किंतु सत्संग इस रोग को मिटाने के लिए औषधि है। अर्थात् सज्जनों की संगति दोष रुप नहीं है वह इहलोक और परलोक के हितकारी है। नीतिकारों ने कहा है - यदि तुम सज्जन पुरुषों की संगति करोगे तो तुम्हारा भविष्य सुधर जाएगा। अतः दुर्जनों की संगति से बचना और सज्जनों की संगति करना गृहस्थ का सदाचार है। *धर्मश्रवण: सद्गृहस्थ को चाहिए कि वह प्रतिदिन धर्म का श्रवण करता रहे। जो धर्म श्रवण में रुचि रखता है वह अवश्य ही पाप भीरु होता है। वह पाप प्रवृत्तियों और निन्दनीय व्यवहारों से बचता रहता है। धर्म - श्रवण करने से कल्याण मार्ग का बोध होता है और मानसिक अशांति दूर होती है। संसार के ताप से संतप्त प्राणियों को धर्म - श्रवण शांति प्रदान करता है, व्याकुलता को दूर करता है, चित्त को स्थिर बनाता है, और उत्तरोत्तर सद्गुणों की प्राप्ति कराता है। प्रतिदिन धर्मश्रवण करनेवाला गृहस्थ इहलोक - परलोक को सुधारने का अभिलाषी होता है। धर्माभिमुख होने के लिए यह आवश्यक आचार है। * बुद्धि के आठ गुण* व्यवहार और धर्मश्रवण करने के लिए सद्गृहस्थ को बुद्धि के निम्नलिखित आठ गुण आवश्यक है। शुश्रूषा, श्रवणं, चैव, ग्रहणं, धारणं, तथा। ऊहोपोहो, थविज्ञानं, तत्वज्ञानं च धी - गुणाः ।। * शुश्रुषा : शास्त्रादि, सुनने की अभिलाषा। * श्रवण : एकाग्रता पूर्वक धर्म सुनना। * गृहण : सुनते हुए अर्थ को समझना। * धारण : समझे हुए अर्थ को याद रखना विस्मृत नहीं करना। * ऊह : सुनी हुई बात पर अनुकूल तर्क - विर्तक द्वारा विचार करना। * अपोह : सुनी हुई बात का प्रतिकूल तर्को द्वारा परीक्षण करना कि यह बात कहाँ तक सत्य है! * अर्थविज्ञान : अनुकूल, प्रतिकूल तर्को से पदार्थ का निश्चय करना कि यह सत्य है या असत्य। * तत्वज्ञान : जब पदार्थ का निर्णय हो जाय तब उसके आधार पर सिद्धांत निर्णय, तात्पर्य निर्णय, तत्व निर्णय इत्यादि करना। AAAAAAPakiki RAKAIRAIMAANIN61 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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