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________________ ********** * अजीव तत्व पूर्व प्रकरण में जीव तत्व का प्रतिपादन किया गया। जीव का प्रतिपक्षी तत्व अजीव है। अतएव यहाँ अजीव तत्व का निरुपण किया जाता है। न जीव : अजीव : - इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो जीव नहीं है वह अजीव है। जिसमें चेतना गुण का पूर्ण अभाव है, जिसे सुख - दुख की अनुभूति नहीं होती है, जो सदाकाल निर्जीव ही रहता है, वह अजीव तत्व है। अजीव तत्व के दो भेद हैं। 1. अरुपी 2. रुपी 1. अरुपी :- जिसमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श न हो उसे अरुपी या अमूर्त द्रव्य कहते हैं। उसके चार भेद हैं। 1. धर्मास्तिकाय 2. अधर्मास्तिकाय 4. काल 3. आकाशास्तिकाय और 2. रुपी जिसमें वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श हो उसे रुपी या मूर्त द्रव्य कहते हैं। इसका एक भेद है पुद्गलास्तिकाय जहाँ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुदग्लास्तिकाय और जीवास्तिकाय, ये सभी द्रव्य होते हैं वह लोक हैं। जहाँ पर केवल आकाश ही है वह अलोक है। अलोक में जीव और पुद्गल नहीं होते, चूंकि वहाँ पर धर्म और अधर्म द्रव्य नहीं है। इस प्रकार धर्म और अधर्म द्रव्य लोक और अलोक का विभाजन करते हैं। धर्म, अधर्म आकाश और पुद्गल के साथ अस्तिकाय शब्द जुडा है। यह एक पारिभाषिक शब्द है। इसमें दो पद हैं - अस्ति + काय । अस्ति अर्थात् प्रदेश, काय अर्थात् समूह / प्रचय जो प्रदेशों का समूह रुप है वह अस्तिकाय हैं। काल को अस्तिकाय नहीं कहा गया है, क्योंकि वह प्रदेश समूह रुप नहीं है, वह केवल प्रदेशात्मक है। : धर्मास्तिकाय :- (Medium of Motion for Soul and Matter) गति सहायोधर्म :- जो जीव और पुद्गल की गति ( चलने) में उदासीन भाव से सहायक होता है उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं। जिस प्रकार मछली को तैरने मे जल सहायक होता है, अथवा वृद्ध पुरुष को चलने में दण्य सहायक जैसे मछली को तैरने में सहायक जल होता है। होता है। उसी तरह जीव और पुद्गल की गति क्रिया में निमित्त होने वाला द्रव्य धर्मास्तिकाय है। में से है है है है है गति की शक्ति तो द्रव्य में अपनी रहती है, परंतु धर्म द्रव्य उसे चलाने में सहायक होता है। जैसे मछली स्वयं तैरती है तथापि उसकी वह क्रिया पानी के बिना नहीं हो सकती। पानी के अभाव में तैरने की शक्ति होने पर भी वह नहीं तैर सकती। इसका अर्थ है कि पानी तैरने में सहायक है। जब मछली तैरना चाहती है तब उसे पानी की सहायता लेनी ही पडती है। यदि वह न तैरना चाहे तो पानी उसे प्रेरणा नहीं देता । * धर्मद्रव्य का स्वरुप धर्मद्रव्य का स्वरुप इस प्रकार समझा जा सकता है। * द्रव्य की दृष्टि से :- धर्म द्रव्य एक अर्थात् इसके जैसा कोई दूसरा द्रव्य नहीं है, अखण्ड है - इसे विभाजित नहीं किया जा सकता, स्वतंत्र है - यह किसी पर निर्भर नहीं है और नित्य है अर्थात् हमेशा रहने वाला है। 2000 Jain Education Internationa ******** ******** 31 wwwwww.janendary.o
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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