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________________ सारथी से कहा - रथ को वापस मोड लो। मुझे ऐसा विवाह नहीं करना है, जिसमें मूक प्राणीयों की बलि दी जाती हो। उन्हें लौटते देख यादवों पर मानो वज्रपाल सा हो गया। माता शिवा, पिता समुद्रविजय, श्री कृष्ण बलदेव आदि सभी यादव मुख्य अपने अपने वाहनों से उतर पडे। सबने समझाया - कुमार ! इस मंगल महोत्सव से मुख मोड़कर कहाँ जा रहे हो ? विरक्त कुमार ने कहा - तात ! जिस प्रकार ये पशु - पक्षी बंधनों से बंधे हुए थे, उसी तरह आप और हम सब भी कर्मों के प्रगाढ बंधन में बंधे हुए हैं, जिस प्रकार मैंने इन पशु - पक्षियों को बधंन मुक्त कर दिया। उसी प्रकार मैं अब अपने आप कर्म - बंधन से सदा सर्वदा के लिए मुक्त करने के लिए दीक्षा ग्रहण करुंगा। माता - पितादि ने समझ लिया “अब नेमिनाथ न रहेंगे। इनको रोके रखना व्यर्थ है।'' सबने रथ को रास्ता दे दिया। नेमिनाथ सौरिपुर पहुंचे। उसी समय लोकांतिक देवों ने आकर प्रार्थना की, प्रभो ! तीर्थ प्रवर्ताइए। नेमिनाथ तो पहले ही तैयार थे। उन्होंने वार्षिक दान देना आरंभ कर दिया। * दीक्षा कल्याणक * अर्हत् अरिष्टनेमि भगवान ने श्रावण सुदि छट्ठ के दिन पहले प्रहर में उत्तरकुरा नाम की पालखी में विराजकर देव - असुर और मनुष्य की पर्षदा सहित द्वारिका नगरी के बीचोबीच होकर निकले, जहाँ रैवताचल (गिरनार) का उद्यान है, वहाँ पधारे। अशोक वृक्ष के नीचे चित्रा नक्षत्र में चंद्रयोग आने पर समस्त वस्त्रालंकारों का त्याग कर चौविहार छट्ठ तप सहित स्वयं ही दोनों हाथों से पंच मुष्टि लोच किया। तदनन्तर धीर - गंभीर भाव से प्रतीज्ञा का उच्चारण करते हुए भगवान ने णमो सिद्धाणं' शब्द से सिद्धों को नमस्कार करके "करेमि सामइयं" इस प्रतिज्ञा सूत्र का पाठ बोलकर इन्द्र द्वारा दिया हुआ देव दुष्य कंधे पर धारण कर एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा अंगीकार की। उसी समय भगवान को चौथा मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ। * केवलज्ञान कल्याणक * अर्हत् अरिष्टनेमि भगवान ने दीक्षा के बाद 54 दिन तक शरीर शुश्रुषा का त्याग कर, आसोज वदि अमावस के दिन पिछले प्रहर में गिरनार के सहसावन में वेतस (बैंत) वृक्ष के नीचे, चौविहार अष्टम तप सहित, चित्रा नक्षत्र में चंद्र योग के प्राप्त होने पर शुक्लध्यान ध्याते हुए केवलज्ञान व केवलदर्शन को प्राप्त किया। देवों ने केवलज्ञान महोत्सव मनाकर समवसरण की रचना की। द्वारिका के नागरिक भगवान के सर्वज्ञ बनने की बात सुन हर्षविभोर हो उठे। वासुदेव श्री कृष्ण सहित सभी लोगों ने वहाँ आकर भगवान् के दर्शन किये | चतुर्विध तीर्थ की स्थापना हुई। Beeker . * AAPPStatsPrivsteANSAR
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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