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________________ निरुपाधिपना प्राप्त होता है। 4. अनंत चारित्र - मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय होने से यह गुण प्राप्त होता है। इसमें क्षायिक सम्यक्तव और यथाख्यात चारित्र का समावेश होता है, इससे सिद्ध भगवान आत्मस्वभाव में सदा अवस्थित रहते हैं। वहाँ यही चारित्र है। 5. अक्षय स्थिति - आयुष्य कर्म के क्षय होने से कभी नाश न हो (जन्म मरण रहित ) ऐसी अनंत स्थिति प्राप्त होती है। सिद्ध की स्थिति की आदि है मगर अंत नहीं है, इससे सादि अनंत कहे जाते हैं। 6. अरुपिपन नाम कर्म के क्षय होने से वर्ण, गंध, रस तथा स्पर्श रहित होते हैं, क्योंकि शरीर हो तभी वर्णादि होते हैं। मगर सिद्ध के शरीर नहीं है इससे अरूपी होते हैं। 7. अगुरुलघु - गोत्र कर्म के क्षय होने से यह गुण प्राप्त होता है, इससे भारी हल्का अथवा ऊँच-नीच का व्यवहार नहीं रहता । 8. अनंतवीर्य - अंतराय कर्म का क्षय होने से अनंत दान, अनंत लाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग तथा अनंत वीर्य प्राप्त होता है। सिद्ध भगवान के ऐसी स्वाभाविक शक्ति रहती है कि जिससे लोक को अलोक और अलोक को लोक कर सकें। तथापि सिद्धों ने भूतकाल में कदापि ऐसा वीर्य स्फोट (शक्ति का प्रयोग) किया नहीं, वर्तमान में करते नहीं और भविष्य में कदापि करेंगे भी नहीं। क्योंकि उनको पुद्गल के साथ कोई संबंध नहीं होता। इस अनंतवीर्य गुण से वे अपने आत्मिक गुणों को जिस स्वरुप में है वैसे ही स्वरूप में अवस्थित रखते हैं। इन गुणों में परिवर्तन नहीं होने देते। आचार्यजी के छत्तीस गुण - धर्म नौका के नाधिक - जो पांच आचार को स्वयं पाले और अन्य को पलावें तथा धर्म के नायक है, श्रमण संघ में राजा समान है उनको आचार्य कहते हैं। आचार्य महाराज के छत्तीस गुण होते हैं। 1 से 5 - पाँच इन्द्रियों के विकारों को रोकने वाले अर्थात् 1. स्पर्शनेन्द्रिय (त्वचा - शरीर) 2. रसनेन्दिय (जीभ) 3. घ्राणेन्द्रिय (नाक) 4. चक्षुन्द्रिय (आंखें) 5. श्रोत्रेन्द्रिय (कान) इन पांच इन्द्रियों के 23 विषयों में अनुकूल पर राग और प्रतिकूल पर द्वेष न करें । 6 से 14 - ब्रह्मचर्य की नव गुप्तियों को धारण करने वाले अर्थात् शील (ब्रह्मचर्य) की रक्षा के उपायों को सावधानी से पालन करने वाले जैसे कि 1. जहाँ स्त्री, पशु अथवा नपुंसक का निवास हो वहाँ न रहे 2. स्त्री के साथ राग पूर्वक बातचीत न करें। 3. जहाँ स्त्री बैठी हो उस आसन पर न बैठे, उसके उठकर चले जाने के बाद भी दो घडी (48 मिनट) तक न बैठे। 4. स्त्री के अंगोपांग को रागपूर्वक न देखें। 5. जहाँ स्त्री-पुरुष शयन करते हों अथवा काम भोग की बातें करते हो वहाँ दीवार अथवा पर्दे के पीछे सुनने अथवा देखने के लिए न रहें। 6. ब्रह्मचर्य व्रत लेने पर साधु होने से पहले की हुई काम क्रीड़ा को विषय भोगों को याद न करे। 7. रस पूर्ण आहार न करें। 8. नीरस आहार करें पर भूख से अधिक न खाए 9 शरीर की शोभा, श्रृंगार, विभूषा न करें। 15 से 18 - चार कषायों का त्याग करने वाले । संसार की परंपरा जिससे बढे उसे कषाय कहते हैं। कषाय के चार भेद है - क्रोध (गुस्सा), मान (अभिमान), माया ( कपट) और लोभ (लालच) । 19 से 23- पाँच महाव्रतों को पालनेवाले । महाव्रत बड़े व्रत को कहते हैं जो पालने में बहुत कठिन है। महाव्रत पाँच है - 1. प्राणातिपात विरमण अर्थात् किसी जीव का वध न करना । 2. मृषावाद विरमण अर्थात् चाहे जितना भी कष्ट सहन करना पड़े तो भी असत्य वचन नहीं बोलना। 3. अदत्तादान विरमण अर्थात् मालिक के दिये बिना साधारण 93 www.jaihelibrary.org
SR No.004050
Book TitleJain Dharm Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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