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1. अम्ब - असुर जाति के ये देव नारकी जीवों को ऊपर आकाश में ले जाकर एकदम छोड़ देते हैं। 2. अम्बरीष - छुरी आदि के द्वारा नारकी जीवों के छोटे - छोटे टुकड़े करके भाड़ में पकने योग्य बनाते हैं।
3. श्याम - ये रस्सी या लात - घूसे आदि से नारकी जीवों को पीटते है और भयंकर स्थानों में पटक देते हैं, ये जो काले रंग के होते हैं अतः श्याम कहलाते हैं।
4. शबल - जो नारकी जीवों के शरीर की आँते, नसें और कलेजे आदि को बाहर खींच लेते हैं। ये शबल अर्थात् चितकबरे रस वाले होते हैं, इसलिए इन्हें शबल कहते हैं। ____5. रुद्र (रौद्र) - जो नारकी जीवों को भाला, बर्डी आदि शस्त्रों में पिरो देते है और जो रौद्र (भयंकर) होते हैं, इन्हें रुद्र कहते हैं।
6. उपरुद्र (उपरौद्र) - जो नारकियों के अंगोपांगों को फाड़ डालते है और जो महारौद्र (अत्यंत भयंकर) होते हैं, उन्हें उपरुद्र कहते हैं।
7. काल - जो नारकियों को कड़ाही में पकाते हैं और काले रंग के होते हैं, उन्हें काल कहते हैं।
8. महाकाल - जो नारकीय जीवों के चिकने मांस के टुकड़े-टुकड़े करते हैं, एवं वापस उन्हीं को खिलाते हैं और बहुत काले होते हैं, उन्हें महाकाल कहते हैं।
9. असिपत्र - जो वैक्रिय शक्ति द्वारा असि अर्थात् तलवार के आकार वाले पत्तों से युक्त वन की विक्रिया करके उसमें बैठे हुए नारकी जीवों के ऊपर तलवार सरीखे पत्ते गिराकर तिल सरीखे छोटे-छोटे टुकड़े कर डालते हैं, उन्हें असिपत्र कहते हैं। ___10. धनुष - जो धनुष के द्वारा अर्द्ध - चन्द्रादि बाणों को फेंककर नारकी जीवों के कान आदि को छेद देते हैं. भेद देते हैं और भी दसरी प्रकार की पीडा पहँचाते हैं. उन्हें धनष कहते हैं।
11. कुम्भ - जो नारकी जीवों को कुम्भियों में पकाते हैं, उन्हें कुम्भ कहते हैं।
12. वालुका - जो वैक्रिय द्वारा बनाई हुई कदम्ब पुष्प के आकार वाली अथवा वज्र के आकार वाली बालू रेत में नारकी जीवों को चने की तरह भूनते हैं, उन्हें वालुका कहते हैं।
13. वैतरणी - जो असुर मांस, रुधिर, ताँबा, सीसा आदि गरम पदार्थों से उबलती हुई नदी में नारकी जीवों को फेंककर उन्हें तैरने के लिए बाध्य करते हैं उन्हें वैतरणी कहते हैं। ___14. खरस्वर - जो व्रज कण्टकों से व्याप्त शाल्मली वृक्ष पर नारकी जीवों को चढ़ाकर, कठोर स्वर करतें हुए अथवा करुण रुदन करते हुए नारकी जीवों को खींचते हैं, उन्हें खरस्वर कहते हैं।
15. महाघोष - जो डर से भागते हुए नारकी जीवों को पशु की तरह बाड़े में बन्द कर देते हैं तथा जोर से चिल्लाते हुए उन्हें वहीं रोक रखते हैं, उन्हें महाघोष कहते है।
पूर्वजन्म में क्रूर क्रिया तथा संक्लिष्ट परिणाम वाले हमेशा पाप में लगे हए भी कुछ जीव. पंचाग्नि तप आदि अज्ञानपूर्वक किये गये काय-क्लेश से आसुरी गति को प्राप्त करते हैं और परमाधार्मिक देव बनते हैं।
2. व्यंतर जाति के देव - ये भी मुख्यतः दो प्रकार के है - 1. व्यंतर 2. वाण व्यंतर | ये देव मेरू पर्वत के नीचे तथा भवनपति देवों से ऊपर मध्यलोक की सीमा में रहते हैं। व्यंतर देव आठ प्रकार के है - 1. पिशाच 2. भूत 3. यक्ष 4. राक्षस 5. किन्नर 6. किंपुरुष 7. महोरग 8. गंधर्व।
वाणव्यंतर देवों के भी 8 भेद है - 1. आणपत्री 2. पाणपन्नी 3. ऋषिवादी 4. भूतिवादी 5. कंदित 6 महाकंदित 7. कूष्मांड 8. पतंगदेव।
व्यंतरदेवों की एक जाति और है - जम्भक देव। तिर्यक लोक में रहने से इन्हें तिर्यक्जृम्भक भी कहते हैं। वे अपनी इच्छानुसार स्वतंत्र प्रवृति करनेवाले अर्थात् निरंतर क्रीड़ा में रत रहनेवाले देव है। ये अति प्रसन्नचित रहते हैं और मैथुन सेवन की प्रवृति में आसक्त बने रहते हैं। जिन मनुष्यों पर यह प्रसन्न हो जाते है उन्हें धन संपत्ति आदि से सुखी कर देते हैं और जिन पर ये कुपित हो जाते है उनकों कई प्रकार से हानि पहुँचा देते हैं। दीक्षा के पूर्व जब तीर्थंकर भगवान वर्षीदान देते हैं, तब यह देव ही उनके भंडार भरते हैं। इनके 10 भेद इस प्रकार है।
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