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________________ लोकान्तिक देवों की धर्मतीर्थप्रवर्तन के लिये प्रार्थना नन्दिवर्धन की प्रार्थना स्वीकृत करने के पश्चात् गृहस्थवेश में भी साधु जैसा सरल और संयमी जीवन बीताते हुए एक वर्ष की अवधि बीत चुकी और भगवान 29 वर्ष के हुए। शाश्वत आचारपालन के लिए ऊर्ध्वाकाश में रहने वाले एकावतारी नौ लोकान्तिक देव दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए - 'जय जय नंदा! जय जय भददा! - अर्थात् 'आपकी जय हो'! आपका कल्याण हो! हे भगवन् सकल जगत के प्राणियों को हितकारी ऐसे धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करो। यों कहकर वे जय-जय शब्द बोलने लगे। श्रमण भगवन्त को तो मनुष्योचित प्रारंभ से ही अनुपम उपयोग वाला तथा केवलज्ञान उत्पन्न हो तब तक टिकनेवाला अवधिज्ञान और अवधि दर्शन था, उससे वे अपने दीक्षा समय को स्वयं जानते गे। लोगों का दारिद्रय दूर करने के लिए करोड़ों मुद्राओं का वार्षिक दान दीक्षा के दिन से एक वर्ष पूर्व प्रभु ने नित्य प्रातःकाल वार्षिकदान प्रारंभ कर दिया। दान देने का समय सूर्योदय से लेकर मध्यान्ह समय तक था। यह दान बिना भेदभाव देते थे। शास्त्रकारों के अनुसार प्रभु प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख और एक वर्ष में तीन सौ अट्ठासी करोड़ और अस्सी लाख सुवर्ण मुद्राओ का दान करते है। स्वहस्त से केशलुंचन तथा संयम-स्वीकार : दीक्षा कल्याणक मार्ग शीर्ष कृष्णा दशमी को तीसरे प्रहर में भगवान महावीर ज्ञातखंड उद्यान में दो दिन के उपवास किये हुए वे अशोक वृक्ष के नीचे हजारों मनुष्यों के समक्ष दीक्षा की प्रतिज्ञा के लिये खड़े हुए। समस्त वस्त्रालंकारों का त्याग करके स्वयं ही असार दोनों हाथों से पंचमुष्टि लोच करते हुए चार मुष्टि से मस्तक और एक मुष्टि से दाढ़ी-मूंछ के केश अपने हाथों से शीघ्र खींचकर दूर किये। उन केशों को इन्द्र ने ग्रहण किया। तदनन्तर धीर-गंभीर भाव से प्रतिज्ञा का उच्चारण करते हुए भगवान ने ‘णमो सिद्धाणं' शब्द से सिद्धों को नमस्कार करके करेमि सामइयं' इस प्रतिज्ञासूत्र का पाठ बोल कर यावज्जीवन का सामायिक-साधुमार्ग स्वीकृत किया। उस समय भगवान ने नये कर्मों को रोकने के लिये तथा पुराने कर्मों का क्षय करने के लिए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों को ग्रहण किया। इन्द्र ने उन के बाएं कन्धे पर देवदूष्य नामक बहुमूल्य वस्त्र को स्थापन किया। उसी समय भगवान को 'मनःपर्यव' नामक चतुर्थ ज्ञान प्राप्त हुआ। . . . wordarsh129SARANDROID *99 *99 PARAD . . . . . . . .. . . . .. . 0000- 420 0 -2002-02--24-244...*****999. . AAAAA. ARSHA.22.200-20200.00AM &vateANORAN GANAPAAAAAAAAAAAPairhuaAPAN
SR No.004050
Book TitleJain Dharm Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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