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________________ ने विचार किया कि पुत्र के गर्भ में आने के पश्चात् हमारे यहां उत्तम पदार्थों की वृद्धि हुई है अतः बालक का नाम वर्धमान रखा गया। भगवान महावीर का गृहस्थ जीवन : भगवान वर्धमान की निर्भयता की देव परीक्षा और 'महावीर' नामस्थापना नगर के बाहर एक पीपल का वृक्ष था, वहां सब लड़के इकट्ठे होकर दौड़ लगाते थे, वहां भगवान भी क्रीड़ा करने लगे, उस खेल का यह नियम था कि नियत स्थान से दो बालक एक साथ दौड़े जो पहले झाड़ पर चढ़ जाए वह जीता और दुसरा हारा तथा जीता हुआ बालक हारे हुए बालक के कंधे पर बैठकर जहां से दौड़ लगाई थी वहां तक ले जाय। इस समय इन्द्र ने देवों के सामने वर्धमान के बल का वर्णन किया कि - सर्व देव व दानव मिलकर वर्धमान को डरावें फिर भी वर्धमान नहीं डर सकते, यह वचन सुनकर एक मिथ्यात्वी देव अश्रद्धा कर वर्धमान के पास बालक का रूप बनाकर आया और साथ में क्रीड़ा करने लगा, महावीर अति शीघ्र गति से देव के आगे दौड़ गये और देव का विकुर्वित फूफाड़े करते हुए सर्प को पकड़ कर उसके सहारे पीपल के वृक्ष पर चढ़ गये, मन में तनिक भी भयभीत न हुए, इस वक्त देव बालक हार गया और वर्धमान जीत गये, तब उस देव बालक ने वर्धमान को अपने कंधे पर चढ़ाया, भगवान को डराने के लिए देव ने अपना शरीर लम्बा करना शुरू किया, एक ताड़-दो ताड़ यावत् सात ताड़ के वृक्ष जितना लम्बा किया, यह देखकर समस्त लड़के भागे और सिद्धार्थ राजा को सब हाल जाकर कहा, मगर वर्धमान लेशमात्र भी भयभीत न हए, तथापि माता-पिता की चिन्ता निवारण करने के लिए वर्धमान ने उस देव के मस्तक पर वज्रमय मुष्टि का प्रहार किया जिससे वह देव आक्रन्द शब्द करता हुआ धराशायी हो गया और बड़ा भारी लज्जित होकर अपना व प्रकट किया. उस समय इन्द्र महाराज भी वहां आ गये. उन्होंने भगवंत के चरणों में उसे नमन कराया और स्वर्ग में ले गये, मुष्टि प्रहार से देव का मिथ्यात्व नष्ट होकर सम्यकत्व उपार्जन हो गया। यहां पर भगवान का महावीर नाम प्रसिद्ध हुआ। भगवान महावीर के और भी अनेक नाम उपलब्ध होते हैं, यथा - 1. वर्धमान :- माता-पिता के द्वारा प्रदत्त नाम। 2. महावीर :- देवों द्वारा प्रदत्त नाम। 3. ज्ञातपुत्र :- पितृवंश के कारण प्राप्त नाम | 4. सन्मति :- मति सत्य के कारण प्राप्त नाम। 5. काश्यप :- काश्यप गोत्र के कारण। 6. देवार्य :- देवों के आदरणीय होने के कारण। 7. विदेह पुत्र :- मां त्रिशला का विदेह कुल की होने के कारण। 8. श्रमण :- सहज स्वाभाविक गुणों के कारण। sirsinh. 27 For Personal & Private Use Only 4444444AAAAAAAAAAAAAAAAA Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004050
Book TitleJain Dharm Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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