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(2) सुषमा - प्रथम आरे की समाप्ति पर तीन कोडाकोडी सागरोपम का सुषमा नामक दूसरा आरा प्रारंभ होता है। दूसरे आरे में, पहले आरे की अपेक्षा वर्ण, रस, गंध और स्पर्श की उत्तमता में अनंतगुनी हीनता आ जाती है। इस आरे में एक वर्षा बरसने से एक हजार वर्ष तक पृथ्वी में सरसता रहती है। पृथ्वी का स्वाद चीनी से अधिक मीठा होता है। स्पर्श रेशम के गुच्छे जैसा होता हैं। क्रम से घटती घटती दो गाऊ शरीर की अवगाहना, दो पल्योपम की आयु और 128 पसलियां रह जाती है। दो दिन के अंतर से आहार की इच्छा होती है। फूल, फल आदि का आहार करते हैं । मृत्यु से छह माह पहले युगलिनी पुत्र-पुत्री के एक जोड़े को जन्म देती है । इस आरे में 64 दिन तक उनका पालन-पोषण करना पडता है। तत्पश्चात वे स्वावलम्बी हो जाते हैं और सुखोपभोग करते हुए विचरते हैं। शेष सभी वर्णन पहले आरे के समान ही समझना चाहिए।
(3) सुषमा-दुषमा - दो कोडाकोडी सागरोपम का तीसरा सुषमा - दुषमा ( बहुत सुख और थोडा दुःख) नाम तीसरा आरा आरंभ होता है। इस आरे में भी वर्ण, रस, गंध और स्पर्श की उत्तमता में क्रमशः अनंतगुनी हानि हो जाती है। इस आरे में एक वर्षा बरसने से सौ वर्ष तक पृथ्वी की सरसता रहती है। पृथ्वी का स्वाद गुड़ जैसा और स्पर्श रुई की पेल जैसा होता है। घटते घटते एक गाऊ का देहमान, एक पल्योपम का आयुष्य और 64 पसलियाँ रह जाते हैं। एक दिन के अंतर पर आहार की इच्छा होती है । मृत्यु के छह माह पहले युगलिनी पुत्र-पुत्री के जोड़े को जन्म देती है। 79 दिनों तक पालन-पोषण करने के पश्चात वह जोडा स्वावलंबी हो जाता है।
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जब तीसरा आरा समाप्त होने में चौरासी लाख पूर्व 3 वर्ष और 8 मास 15 दिन शेष रह जाते हैं, तब प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है। काल के प्रभाव से, कल्पवृक्षों से कुछ भी प्राप्ति नहीं होती, तब मनुष्य क्षुधा पीड़ित और व्याकुल होते है। परस्पर विग्रह होने लगता है, तब सब मिलकर अपनी समस्या लेकर उन राजकुमार (भावी तीर्थंकर) के पास आते हैं। मनुष्यों की यह दशा देखकर और दयाभाव से प्रेरित होकर वे उनके प्राणों की रक्षा के लिए खेती करना, अग्नि प्रज्वलित करना तथा शिल्प आदि कलाएं सिखाते हैं।
संपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था हो जाने के बाद तीर्थंकर राज्य - ऋद्धि का परित्याग कर देते हैं। और स्वतः प्रबुद्ध होकर संयम ग्रहण करके, तपश्चर्या करके चार घातिकर्मों का सर्वथा क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त करके धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं और आयु का अंत होने पर मोक्ष पधारते हैं। प्रथम चक्रवर्ती भी इसी आरे में होते हैं।
(4) दुषमा- सुषमा तीसरा आरा समाप्त होते ही 42,000 वर्ष कम एक करोड़ सागरोपम का चौथा आरा आरंभ होता है। इस आरे में पहले की अपेक्षा वर्णादि की, शुभ पुद्गलों की अनंतगुणी हानि हो जाती है। एक वर्षा बरसने से दस वर्ष तक पृथ्वी में सरसता बनी रहती हैं। भूमि का स्वाद चावल के मैदे जैसा और स्पर्श साफ रूई जैसा होता है। देहमान क्रमशः घटते घटते 500 धनुष का और आयुष्य एक करोड़ पूर्व का रह जाता है। पसलियां सिर्फ 32 होती हैं। दिन में एक बार भोजन की इच्छा होती है। 23 तीर्थंकर, 11 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव भी इसी आरे में होते हैं।
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चौथा आरा समाप्त होने में जब तीन वर्ष 8.5 (साढे आठ) महीने शेष रहते हैं तब चौबीसवें तीर्थंकर मोक्ष पधार जाते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी काल में भगवान महावीर के मोक्ष पधारने के तुरंत बाद ही श्री गौतम स्वामी को केवलज्ञान हुआ। वे बारह वर्ष पर्यन्त केवली पर्याय में रहकर मोक्ष पधारे। इसके पश्चात श्री सुधर्मा स्वामी को केवलज्ञान हुआ। वे 44 वर्ष तक केवली पर्याय में रहकर मोक्ष पधारे। इस प्रकार प्रभु महावीर के निर्वाण के बाद 64 वर्ष तक केवल ज्ञान रहा। इसके बाद कोई केवलज्ञानी नहीं हुआ। चौथे आरे के जन्मे हुए मनुष्य को पांचवे आरे में केवलज्ञान हो सकता है। किंतु पांचवें आरे में जन्मे हुए को केवलज्ञान नहीं होता।
(5) दुषमा 21,000 वर्ष का दुषमा नामक पांचवा आरा आरंभ होता है। चौथे आरे की अपेक्षा वर्ण, रस,
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