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________________ A2- 222242200000 2222222222-2. ***** ** * 44 4 60000000000000000000000000000 सोचकर सब गुटिकाएं निगल गई। उसके गर्भ में बत्तीस जीव उत्पन्न हुए उनका भार सहन करना दुखद हो गया। उसने कार्यात्सर्ग करके देव का स्मरण किया, देव आया, सुलसा की पीड़ा जानकर देव ने कहा-भद्रे! तुझे ऐसा नहीं करना था। अब तू निश्चित रह। तेरी पीड़ा दूर हो जाएगी और तेरे बत्तीस सुपुत्र एक साथ होंगे। देव ने उसे गूढगर्भा कर दिया। शुभ मुहूर्त में बत्तीस लक्षण वाले बत्तीस पुत्रों को जन्म दिया। ये बत्तीस कुमार यौवन वय प्राप्त होने पर महाराज श्रेणिक के अंगरक्षक बने। ये ही अंगरक्षक श्रेणिक के साथ वैशाली गये और चिल्लनाहरण के समय श्रेणिक की रक्षा करते हए मारे गये। श्रेणिक को अपने सभी अंगरक्षक मर जाने से खेद हुआ। यह खबर सुनकर सलसा दःख व्यक्त करने लगी तब अभयकमार ने उसे समझाया कि.समकितधारी होकर तू अविवेकी के भांति क्यों शोक करती है? यह शरीर तो क्षणिक है इसलिये शोक करने से क्या होगा? इस प्रकार धार्मिक रूप से सांत्वना देकर सुलसा को शांत किया। एक बार चंपानगरी से अंबड परिव्राजक (संन्यासी वेधधारी एक श्रावक) राजगृही नगरी जाने के लिये तैयार हुआ। उसने श्री महावीर स्वामी को वंदना करके विनती की, स्वामी! आज में राजगृही जा रहा हूं। भगवंत बोले, वहां सुलसा श्राविका को हमारा धर्मलाभ कहना। वह वहां से निकलकर राजगृही नगर आ पहुंचा। उसने मन में सोचा, जिसके लिये प्रभु स्वयं अपने मुख से धर्मलाभ कहलवा रहे हैं तो वह वाकई दृढ़धर्मी ही होगी। उसकी धर्म के विषय में स्थिरता कैसी है इस बारे में मुझे उसकी परीक्षा करनी चाहिये। इस प्रकार के विचार से वह पहले दिन राजगृही के पूर्व दिशा के दरवाजे पर अपने तपोबल से उत्पन्न शक्ति से साक्षात् ब्रह्म का रूप लेकर बैठा। ऐसा चमत्कार देखकर नगर के सर्व लोग दर्शन के लिये आये पर सुलसा श्राविका नहीं आयी। दूसरे दिन दूसरे दरवाजे पर महादेव का रूप धरकर बैठा। वहां भी नगर के सब लोग भक्त बनकर उसके दर्शन के लिये आये लेकिन सलसा नही आयी। तीसरे दिन तीसरी दिशा के दरवाजे पर विष्ण का रूप धरकर बैठा। वहां भी नगर के सब लोग आये पर सुलसा आयी। चौथे दिन चौथे दरवाजे पर समवसरण की रचना की, पच्चीसवें तीर्थंकर का रूप लेकर बैठा। वहां भी दूसरे लोग आये पर सुलसा नहीं आयी, इसलिये उसने कोई मनुष्य के साथ सुलसा को कहलवाया कि तुझे पच्चीसवें तीर्थंकर ने वंदन के लिये बुलवाया है तब सुलसा ने उत्तर दिया, भ्रद! पच्चीसवें तीर्थंकर कभी हो ही नहीं सकते, वह तो कोई कपटी है और लोगों को ठगने के लिये आया है। मैं तो सच्चे तीर्थंकर महावीर स्वामी के सिवाय दूसरे किसी को वंदन करूंगी नहीं। ___ अंबड श्रावक को लगा कि यह सुलसा थोड़ी भी चलायमान होती नहीं है वह सच्च में स्थिर स्वभाववाली है, कर अबड अब श्रावक का भेष लेकर सुलसा के घर गया। सलसा की बड़ी प्रशसा करके बोला. है भद्रे! तू सच्च में पुण्यशाली है क्योंकि भगवंत श्री महावीर स्वामी ने मेरे साथ धर्मलाभ' कहलवाया है। इतना सुनते ही वह तुरंत उठ खडी हई और भगवंत को नमस्कार करके स्तवन करने लगी. मोहराजा रूपी पहलवान के बल का मर्दन कर डालने में धीर, पापरूपी कीचड़ को स्वच्छ करने के लिए निर्मल जल जैसे, कर्मरूपी धूल को हरने में एक पवन जैसे, हे महावीर प्रभु! आप सदैव जयवंत रहें। अंबड श्रावक सुलसा को ऐसी दृढ़ धार्मिणी देखकर अनुमोदना करके स्वस्थानक लौटे। सुलसा ने ऐसे उत्तम गुणों से शोभित अच्छे धर्मकृत्य करके स्वर्ग की संपदा प्राप्त की। वहां से इस भरतखंड में अगली चौबीसी में निर्मम नामक पन्द्रहवें तीर्थंकर बनकर मोक्षपद प्राप्त होगा। -222222222000200 22249244002 10.68 "For Personal d ate Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004050
Book TitleJain Dharm Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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