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अध्याय-७
१५५
लग्ने क्वापि समस्तकार्यजनके सप्तग्रहालोकेन ज्ञात्वा ज्ञानवशाद् गुरुं ...... देवाभिधः। आचार्यान् रचयांचकार चतुरस्तस्मात् प्रवृद्धो बभौ वंद्रोऽयं वटगच्छनाम रुचिरो जीयाद् युगानां शतीम्।।२।। बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि द्वारा रचित उपदेशमालाप्रकरणवृत्ति (रचनाकाल वि०सं०१२३८/ई०सन् ११८२) की प्रशस्ति Muni Punya Vijaya-Catalogue of Palm-Leaf Mss in the Shanti Natha Jain Bhandar, Combay, Pp.284-286. उक्त प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने बृहद्गच्छ के उत्पत्ति की तो चर्चा की है, परन्तु उक्त घटना की तिथि के सम्बन्ध में वे मौन हैं। मध्यकाल में रची गयी विभिन्न पट्टावलियों यथा तपागच्छीय मुनिसुंदरसूरि द्वारा रचित गुर्वावली (रचनाकाल वि०सं०१४६६/ई०सन् १४०९), तपागच्छीय आचार्य हीरविजयसूरि के शिष्य धर्मसागरसूरि द्वारा रचित तपागच्छपट्टावली (रचनाकाल वि०सं० १६४८/ई०सन् १५९२), बृहद्गच्छीय मुनिमाल द्वारा रचित बृहद्गच्छगुर्वावली (रचनाकाल वि० सं० १६१० के आस-पास) आदि में यह घटना वि०सं० ९९४ में हुई बतलायी गयी है; किन्तु पश्चात्कालीन होने से उल्लिखित उक्त मत की प्रामाणिकता सन्दिग्ध मानी जा सकती है। इस सम्बन्ध में विस्तार के लिए द्रष्टव्य- "बृहद्गच्छ का संक्षिप्त इतिहास” पं० दलसुख भाई मालवणिया अभिनन्दन ग्रन्थ, वाराणसी १९९२ ई०,पृ० १०५-११७.
P.Peterson. Opration in Search of Sanskrit MSS: Vol-V. Bombay 1896 A.D. pp-125-126.
पुहवीचंदचरिय (पृथ्वीचंद्रचरित्र), सम्पा०- मुनि रमणीकविजय, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, ग्रन्थांक १६, अहमदाबाद-वाराणसी १९७२ ई० सन्, इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में भी उक्त गुरु-स्तुति प्रकाशित है जिसका आधार प्रो० पीटर्सन का उक्त ग्रन्थ ही है। A.P.Shah, Catalogue of Sanskrit & Parkrit Mss, Muni Shree PunyavijayJis Collection. No.
5479, P-349. ४-५. मोहनलाल दलीचंद देसाई- जैनगूर्जरकविओ, भाग-१, नवीन संस्करण, सम्पा० डॉ० जयन्त
कोठारी, पृ० ५२. ६-७. वही, भाग-१, पृ० १०५. ८. वही, भाग-१, पृ० ३९७. ९. “पिप्पलगच्छगुर्वावली” सम्पा० भंवरलाल नाहटा, आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रन्थ,
बम्बई १९५६ ई०, हिन्दी खण्ड, पृ० १३-२२.
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