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________________ विद्याधर होते मन्त्रपरायण ६३ लिया है, वैसे ही प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों (विद्याधरों) ने पारद पर प्रयोग करके कई विधियाँ खोज निकाली थीं, जिनसे तांबे का सोना बनाना, भौतिक शरीर को बहुत अंशों में अजर-अमर बनाना, कई रोगों का स्थायी इलाज करना पूर्णतः सम्भब था। रससिद्ध नागार्जुन ऐसे ही सौराष्ट्र निवासी एक विद्याधर थे, जिनकी रुचि अपने राज्य संचालन की अपेक्षा ज्ञान विज्ञान के अध्ययन और खोज की ओर विशेष थी। उन्होंने संसार का कायापलट कर देने के लिए 'अमृत' और पारस की खोज करने का निश्चय किया। अपनी एक बड़ी प्रयोगशाला बनाकर विभिन्न जड़ी-बूटियों द्वारा पारद सम्बन्धी परीक्षण में जुट पड़े। साथ ही रस वैज्ञानिकों और साधकों को बुलाकर उनका सहयोग भी प्राप्त करने लगे। अपनी आन्तरिक लगन, रसविद्या की सिद्धि की तत्परता और कठोर साधना के कारण उन्हें शीघ्र ही आश्चर्यजनक सफलता मिली। दोनों उद्देश्यों की सिद्धि में वे सफल हुए। उनकी खोजों का साक्षी हैउनका 'रसोद्धारतन्त्र' नामक ग्रन्थ । सौराष्ट्रान्तर्गत ढांक के राज्यकार्य की उपेक्षा करके जब नागार्जुन ने अपनी समस्त शक्ति और समय अमृत की खोज में लगा दी, यह देख राज्यहितैषी मन्त्रियों ने प्रार्थना की- 'आपकी विज्ञान-रुचि के कारण राज्यकार्य में क्षति हो रही है, प्रादेशिक सामन्त स्वेच्छाचारी बनकर कर देना बन्द कर रहे हैं, उपद्रवी तत्व बढ़ रहे हैं।" मन्त्रियों की बात सुनकर नागार्जुन ने कहा- "अमृत की खोज में लगने के कारण राज्यकार्य में क्षति हो रही है, यह ठीक है । पर जिन दो विपत्तियों का भय दिखाया, उनकी मुझे कोई चिन्ता नहीं है । अगर सामन्तों से कर न मिले तब भी मेरा खजाना स्वर्ण से भरा रह सकता है, यदि कोई विदेशी मेरे राज्य पर आक्रमण करने का साहस करेगा तो सेना के बजाय थोड़ी सी औषधि से ही उसे नष्ट करने का सामर्थ्य रखता हूँ। वैसे मेरा उद्देश्य अमृत की खोज करना है, किसी का विनाश करना नहीं। मैं तो मनुष्य मात्र को अर्थाभाव और मृत्यु के भय से मुक्त करने की विद्या की साधना में संलग्न हूँ।" पर जब मन्त्रियों ने आन्तरिक उपद्रवों का भय दिखलाया तो नागार्जुन ने कहा- ''अगर राज्य को संभालने का आपका ऐसा ही आग्रह है तो युवराज को बुलाओ, मैं आज ही अपना राजमुकुट उसके मस्तक पर रख देता हूँ। फिर आप सब राज्यहितैषी लोग उसे उचित प्रशिक्षण देकर राज्य संचालन की व्यवस्था करें। मैं तो अमृत विद्या की शोध में पूर्ण सफलता न मिलने तक अन्य किसी बात पर ध्यान नहीं दे सकता।" सचमुच उस दृढ़निश्चयी विद्याधर ने युवराज को राज्याभिषिक्त कर दिया और निश्चिन्त होकर पूर्ण रूप से अपने परीक्षणों में दत्तचित्त हो गया। अज्ञात जड़ीबूटियों का सेवन करके उनके प्रभाव की जाँच करना खतरे से खाली न था, कोई भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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