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________________ दुष्टाधिप होते दण्डपरायण - २ ३५ अपना राज्य छोड़कर भागने को विवश कर दिया, काशीनरेश ने कौशल देश पर अपना अधिकार जमा लिया। इतना ही नहीं, काशीनृप ने यह घोषणा भी करवा दी कि " जो कौशलनरेश का मस्तक लायेगा, उसे मैं सवा मन सोना दूंगा ।" कौशलेश के कानों में जब यह समाचार पड़े तो एक दिन एक दुःखी ऋणपीड़ित और सहायता के लिए कौशल देश जाने के इच्छुक यात्री को अपने साथ लेकर वे काशीनृप के दरबार में स्वयं अपना मस्तक देकर उसे सवा मन सोना दिलाने पहुँचे । कौशलनरेश को दीन-दुःखी के उद्धार के लिए स्वयं अपना सिर देने के लिए उद्यत देख काशीनृप का हृदय एकदम पलट गया। वे गद्गद होकर सिंहासन से उतर पड़े और जबरन कौशलनरेश के सिर पर मुकुट रखकर उन्हें सिंहासन पर बिठा दिया । काशीनृप को भारी पश्चात्ताप हुआ । उन्होंने कौशलेश को न चाहते हुए भी पुनः कौशल देश का राज्य सौंपा और स्वयं उनके सेवक बनकर रहने का निश्चय किया । यह था जन-जन के हृदय पर शासन करने का श्रेष्ठ राजा का मूलमंत्र ! राज्याधिप कैसे बिगड़े ? कैसे दुष्ट हुए ? प्रश्न होता है, काशीनरेश जब इतने आदर्श, त्याग-परायण, धार्मिष्ठ एवं श्रेष्ठ राज्य थे, उनके बिगड़ने और सहसा दुष्ट हो जाने का क्या कारण बना ? इसके उत्तर में हमें प्राचीन भारतीय इतिहास पर नजर डालनी होगी । पहले तो जनता ने राजाओं को उनके त्याग, तप, बलिदान की भावना, प्रजावत्सलता आदि गुणों को देखकर बहुत ही सम्मान दिया, उन्हें महान् माना, देवमय समझा, यह उनके गुणों के अनुरूप उचित ही था, परन्तु अधिकांश राजाओं को अत्यधिक महत्ता पची नहीं । वे महत्ता पाकर अपने को महान् समझने लगे । वे यह भूल गये कि जनता से महत्ता और प्रतिष्ठा प्राप्त करने का मार्ग कुछ और ही है । त्याग, तपस्या, सेवा, बलिदान, परोपकार, परमार्थ, विद्या तथा धर्मपरायणता आदि का अवलम्बन लेने पर ही महत्ता मिला करती है । जब उसमें त्याग, तप, बलिदान, परोपकार, सेवा आदि के गुण न रहे तथा निर्व्यसनता, सच्चरित्रता एवं धर्माचरण के सन्मार्ग से हट गये और केवल सत्ता तथा महत्ता का अभिमान रह गया, तब उन्होंने जनता पर अपना बड़प्पन और महत्ता थोपना शुरू किया । वे मनुष्यता की सीमा को लांघकर जनता पर अपना रौब और दबदबा जमाने के लिए विभिन्न हथकंडे अपनाने लगे, अन्याय-अत्याचार करने और निर्दोष को दण्ड देने लगे । अपनी महत्वाकांक्षा की भूख को तृप्त करने के लिए पैशाचिक प्रवृत्ति करने लगे । उद्दण्डता और आतंक का मार्ग अपनाकर जनता पर अपनी महत्ता का सिक्का जमाने लगे । शासक की तेजस्विता खोकर वे क्षमता और गुणों के अभाव में अपनी महत्ता प्रकट करने के लिए सज्जनों की सताने लगे, उच्च लोगों को गिराने की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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