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________________ ३६४ आनन्द प्रवचन : भाग १० आत्मदेव - शीलवान आत्मदेव विराजमान न हो तो उसकी प्रतिष्ठा और यशकीर्ति कोई नहीं करेगा ? केवल शरीर को कोई यश नहीं मिलता, शरीर से सम्बन्धित धन, बल, सत्ता को कदाचित मिल भी जाए तो भी उसका ज्यादा से ज्यादा तभी तक टिकना सम्भव है जब तक कि शरीर में आत्मा है । जब शरीर से आत्मा विदा हो जाता है, तब उस शरीर को कोई यश कीर्ति या प्रतिष्ठा नहीं मिलती, लोग उसकी आत्मा में निहित शीलगुण के कारण ही उस व्यक्ति के यशोगान करते हैं । एक दृष्टि से देखा जाए तो यश शरीर है और शील आत्मा है । शरीर चला जाता है तो बाह्य यश भी समाप्त हो जाता है, किन्तु यदि आत्मा शीलयुक्त हो तो वह आन्तरिक यश से ओतप्रोत हो जाता है, और उस शीलवान आत्मा को मनुष्य ही नहीं, देव एवं देवराज इन्द्र तक भी जानने लग जाते हैं । पाश्चात्य विचारक पैने (Paine ) ने ठीक ही कहा है "Reputation is what men and women think of us, character is what God and angels know of us." 'यशकीर्ति वह है, जिसके कारण नर और नारी हमारे विषय में सोचते हैं, किन्तु शील (चरित्र) वह है जिसके कारण परमात्मा और देवदूत तक हमारे विषय में जानते हैं ।' इस दृष्टि से शीलवान आत्मा का ही यश वास्तविक, प्रशस्त, आन्तरिक, सर्वमान्य और चिरस्थायी होता है । जैन इतिहास प्रसिद्ध सुदर्शन सेठ बहुत सुन्दर था, गौरवर्ण था, धनवान था, राजमान्य था, इतने मात्र से उसे यश नहीं मिल पाया, न मिल पाता और मिलता तो भी वह क्षणिक होता । अगर सुदर्शन सेठ में शील न होता तो केवल शरीरसौष्ठव या धनादि बाह्य भौतिक साधनों के आधार पर कदाचित् यश मिलता तो भी वह चिरस्थायी न रहता । किन्तु सुदर्शन सेठ का शरीर छूटे आज हजारों वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी उसका यश कायम है। उसकी आत्मा शीलवान थी, उसने अपने आत्मबल पर शील गुण को सुदृढ़ और प्रतिष्ठित किया था, कई प्रलोभनों और आतंकों व उपसर्गों के झंझावात आ जाने पर भी उसने अपने शीलगुण को सुरक्षित रखा, उसे नष्ट न होने दिया, इसी कारण उसका नाम और यश आज भी अजर-अमर है । इसलिए शीलवान आत्मा ही सच्चे माने में यशोभाजन होती है, उसी का बोलबाला होता है, उसी आत्मा में सब चमत्कार होते हैं । शीलवान आत्मा की पहचान यहाँ प्रश्न होता है कि शीलवान आत्मा की पहचान कैसे हो ? किसकी आत्मा शीलवान है, यह कैसे पता चल सकता है ? यद्यपि शील एक आत्मभावना है, वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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