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अनवस्थित आत्मा : अपना ही शत्रु ३७५ नष्ट नहीं होता, वह जन्म-जन्मान्तर में मिलने वाले शरीर के साथ रहता है । वह बदलता नहीं, शरीर बदलता है । अतः गला काटने वाला शत्रु तो अनित्य शरीर का ही नाश करता है, नित्य आत्मा का नहीं । अगर गला काटने वाले शत्रु के प्रति द्वेष और रोष न किया जाय तो वह आत्मा को कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सकता, सिवाय गला काटकर शरीर को नष्ट करने के, बल्कि सोमल ब्राह्मण, नमुचि पुरोहित, या अर्जुनमाली पर प्रहार करने वाले राजगृहवासियों की तरह क्रमशः गजसुकुमार, स्कन्दकाचार्य के ५०० शिष्यों एवं अर्जुनमुनि की आत्मा की मुक्ति में सहायक बन जाते हैं।
___ इसलिए यदि हम तात्त्विक दृष्टि से (निश्चय नय से) विचार करें तो वस्तुस्थिति यह है कि हमारी आत्मा के सिवाय अन्य कोई भी हमारा गला काटने वाला (नुकसान करने वाला) नहीं, हमारा गला हमारी आत्मा ही काटती और कटवाती है। हमने बुरे कर्म किये होंगे, इसी कारण उनके फलस्वरूप कोई (निमित्त) हमारा गला काट पाता है। बुरे कर्म हमारी आत्मा ने न किये हों तो लाख प्रयत्न करने पर भी कोई हमारा बाल भी बांका नहीं कर सकता है । इस दृष्टि से सोचें तो हमारा गला काटने वाला शत्रु बाह्य निमित्त नहीं, हमारा दुष्कर्मकारी आत्मा ही है, बाह्य निमित्त के प्रति हम द्वेष-रोष न करें, समभाव से उस वेदना को सह लें तो वही हमारी मुक्ति में सहायक बन सकता है। इसीलिए कहा गया कि आत्मा ही आत्मा का शत्रु है, वैसे आत्मा ही आत्मा का मित्र है।
एक दूसरे पहलू से इस पर विचार करें। ज्ञानस्वरूप आत्मा सिंह के समान पूर्ण अधिकारी है और ज्ञानविकल आत्मा कुत्ते के समान है । कुत्ते की यह खासियत है कि जब कोई उस पर ईंट या पत्थर मारता है तो वह मारने वाले पर नहीं झपटता, किन्तु इंट-पत्थर आदि निमित्त साधनों पर झपटता है। वह समझता है कि मुझे मारने वाला ईंट या पत्थर ही है। किन्तु सिंह की प्रकृति ऐसी नहीं होती, जब कोई उस पर गोली मारता या तीर चलाता है तो वह गोली या तीर पर नहीं झपटता, किन्तु गोली या तीर चलाने वाले पर ही झपटता है। वह समझता है कि गोली या तीर का कोई दोष नहीं, ये तो निमित्त-साधन हैं, दोष तो इन्हें चलाने वाले का है।
___ यही बात यहाँ आत्मा के सम्बन्ध में समझिए । जैसे सिंह समझता है कि मुझे मारने वाला तीर या गोली नहीं है, किन्तु उसका प्रयोग करने वाला है। वैसे ही जिसमें आत्मबल है, जो ज्ञानवान है, वह समझता है कि मेरा गला यह व्यक्ति नहीं काट रहा है, यह तो सिर्फ निमित्त कारण है, वास्तव में मेरी आत्मा ही अपना गला काट रही है । सिंह को मारने के लिए जैसे तीर या गोली हथियार निमित्त बन गया था, वैसे ही मेरी आत्मा के लिए कर्मों का हथियार निमित्त बन गया है । मारने वाला शत्रु मेरे भीतर ही बैठा है; जो बाहर का निमित्त कारण है, उसका दोष नहीं है, दोष तो भीतर बैठे हुए आत्मा का है।
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